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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३५३ दर्शनस्य परिनिष्ठितौ' वस्तुदर्शनाच्च निश्चयस्वरूपस्य परस्पराश्रयदोषः स्यात् । ततो न विकल्पवच्छब्दस्य सर्वथान्यापोहोर्थः । एतेनातत्कार्यकारणव्यावृत्तिरेकप्रत्यवमर्शादिज्ञानादेकार्थसाधने हेतुरत्यन्तभेदेपीन्द्रियादिवत्समुदितेतरगुडच्यादिवच्च ज्वरोपशमनादाविति वदनिराकृतः, सर्वथा ततो वस्तुनि प्रवृत्त्ययोगात् । समयाशिनोपि' क्वचिदन्वयबुद्धचभिधानव्यवहारोऽतत्कार्यकारणव्यतिरेकव्यवस्थायां गुडच्याद्युदाहरणप्रक्लुप्ति विपर्यासयति', तस्य वस्तुभूतार्थसादृश्यपरिणामसाधनत्वात् । न हि गुडूच्यादयो ज्वरोपशमनशक्तिसमानपरिणामाभावे ज्वरोपशमहेतवो न पुनर्दधित्रपुषादयोपीति शक्यव्यवस्थं, चक्षुरादयो वा रूपज्ञानहेतवस्तज्जननशक्तिसमानपरिणामविरहिणोपि न पुना रसादय इति निर्निबन्धना" व्यवस्थितिः । 12अतत्कार्यकारणव्यावत्तिनिबन्धना सेति चेत्कथं तत्कारणकार्यजन्यजनकशक्तिसमानपरिणा अत्यन्त भेद होने पर भी इंद्रियादि के समान । एवं ज्वरादि का उपशमन करने में समुदित शुण्ठी आदि, गुडूची आदि के समान । अर्थात् खण्डो-मुण्डी आदि विशेष समान परिणाम से रहित ही एक प्रत्यवमर्श ज्ञान एकार्थ हेतुक होते हैं, क्योंकि वे अतत्कार्यकारण से व्यावृत्त हैं। जैसे इन्द्रियादि, अथवा समुदित शुण्ठी गुरुच आदि औषधियाँ । ऐसा कहने वाले बौद्ध का भी खण्डन कर दिया गया है, क्योंकि सर्वथा अतत्कार्यकारण व्यावृत्ति से वस्तु में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। __ तथा अतत्कार्यकारण व्यावृत्ति में समयादर्शी (संकेत को नहीं जानने वाले) भी किसी वस्तु में अन्वय बुद्धि और शब्द व्यवहार करते हैं तो अतत्कार्यकारण व्यावृत्ति को व्यवस्था में गुडूच्यादि उदाहरण की प्रक्लुप्ति को विपरीत करते हैं क्योंकि वे गुडूच्यादि उदाहरण वस्तुभूत पदार्थ के सादृश्य परिणाम के साधक हैं । एवं गुडूच्यादि, ज्वरोपशमन शक्तिरूप समान परिणाम के अभाव में भी ज्वरोपशमन के हेतु हैं, पुनः दधि, पुष-खीरा, ककड़ी आदि हेतु नहीं हैं ऐसी व्यवस्था करना भी शक्य नहीं है । अथवा चक्षु आदि तज्जनन शक्तिरूप समान परिणाम से रहित होते हुये भी रूप ज्ञान में हेतु हैं किन्तु रसादिक नहीं हैं, यह सब कथन बिना हेतुक ही है। यदि आप कहें कि इस व्यवस्था में अतत्कार्यकारण व्यावृत्ति ही हेतु है तब तो तत्कार्यकारण में जन्य-जनक शक्तिरूप समान परिणाम के अभाव के होने पर भी किन्हीं को अतत्कार्य कारण 1 गोव्यक्तयोऽत्यन्तभेदेप्येकप्रत्यवमर्शाधेकार्थसाधने हेतव एकप्रत्यवमर्शादिना सह अतत्कारणकार्यव्यावृत्तिसद्भावात् । यत्र तन्न तथात्वं यथा समुदितेतरगुड इत्यादौ। (दि० प्र०) 2 तस्माद्यथाविकल्पस्यार्थः सर्वथान्यापोहः अभावो न तथा सन्अस्यार्थोऽन्यापोहेन । एतावता विकल्पशब्दौ भावाभावात्मकौ जातौ। (दि० प्र०) 3 शब्दविकल्पयोः सर्वथान्यापोहनिषेधद्वारेण । (दि० प्र०) 4 चक्षु रालोकदेशकालाः । (दि० प्र०) 5 समुदितानि चेतरेतराणि च समुदितरेतराणि । (दि० प्र०) 6 अशास्त्रज्ञस्यापि =आगमाज्ञानिनो मुग्धस्य । (दि० प्र०) 7 नु । (दि० प्र०) 8 रचनाम् । (दि० प्र०) 9 विपरीतां करोति । (दि० प्र०) 10 साधकः । (दि० प्र०) 11 सौगतः । निष्कारणकः । (दि० प्र०) . 12 सौगतः । (दि० प्र०) 13 व्यवस्थितिः । (दि० प्र०) 14 गुडूच्यादि । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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