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________________ प्रथम परिच्छेद शेषभंग की सिद्धि ] [ ३४१ मतं तदा सदादिपदस्य सत्त्वाद्येकधर्मप्रतिपादनशक्त्यनतिक्रमात् प्रधानभावापितानेकधर्माभिधानाशक्त्यनतिलङ्घनाच्च नानेकोर्थः सकृत्संभवतीत्यनुमन्यताम् । स्यादवक्तव्यमेव सर्वं, युगपद्वक्तुमशक्तेरिति भङ्गचतुष्टयमुपपन्नम् । [पंचमषष्ठसप्तमभंगानां स्पष्टीकरणं ] द्रव्यपर्यायौ व्यस्तसमस्तौ समाश्रित्य चरमभङ्गत्रयव्यवस्थानम् । व्यस्तं द्रव्यं द्रव्यपर्यायौ समस्तौ सहार्पितौ' समाश्रित्य स्यात्सदवक्तव्यमेव सर्वमिति वाक्यस्य प्रवृत्तिः, द्रव्याश्रयणे सदंशस्य सहद्रव्यपर्यायाश्रयणे वक्तुमशक्तेरवक्तव्यत्वस्य विवक्षितत्वात् । तथा व्यस्तं पर्यायं समस्तौ द्रव्यपर्यायौ चाश्रित्य स्यादसदवक्तव्यमेव सर्वमिति 'वचनव्यवहारः । व्यस्तौ क्रमापितौ समस्तौ सहार्पितौ द्रव्यपर्यायौ समाश्रित्य स्यात्सदसदवक्तव्यमेव सर्वमिति शब्दप्रवृत्तिः • na करते हैं। मतलब शब्द चक्षुआदि इन्द्रियों के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित हैं, इसलिये अचाक्षुषत्व आदि धर्म शब्द में विद्यमान ही हैं क्योंकि वे शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति का उलंघन नहीं करते हैं, जैसे कि श्रावणत्व आदि । अर्थात् शब्द में श्रोत्रेन्द्रिय के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति होने से श्रावणत्व धर्म विद्यमान है और चक्ष आदि के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति न होने से अचाक्षषत्व आदि धर्म भी हैं, तब तो वे शब्द भी सत्त्व आदि एक धर्म के प्रतिपादन करने की शक्ति का उलंघन न करने से अपने एक धर्म के प्रतिपादन की शक्ति एवं प्रधानभाव से अर्पित अनेकधर्मों को युगपत कहने की जो अशक्ति है, शब्द उसका भ नहीं करते हैं अतएव वे उस अशक्ति से भी सहित हैं। इसलिये युगपत् अनेक अर्थ को शब्द विषय नहीं कर सकता है इसी कथन को प्रमाणीकतया स्वीकार कर लेना चाहिये। इसीलिये “सभी वस्तु कथञ्चित् अवक्तव्य ही है" क्योंकि युगपत् कहने की शक्ति नहीं है, इस प्रकार से यह चौथा भंग सिद्ध हो गया। [ पांचवें, छठे एवं सातवें भंग का स्पष्टीकरण ] व्यस्त और समस्तरूप से द्रव्य और पर्याय का आश्रय लेकर अन्तिम तीन भंग बनते हैं। व्यस्त रूप द्रव्य और समस्त रूप से युगपत्अर्पित द्रव्य एवं पर्याय इनका आश्रय लेकर सभी वस्तु कथञ्चित् "सत् अवक्तव्य ही हैं" इस प्रकार का वाक्य प्रवृत्त होता है क्योंकि द्रव्य का आश्रय लेने पर “सत्अंश" विवक्षित हैं एवं युगपत् द्रव्य और पर्याय इन दोनों का आश्रय लेने पर कहना अशक्य होने से "अवक्तव्यत्व धर्म' विवक्षित है। उसी प्रकार से व्यस्तपर्याय (सत् अंश) और समस्तरूप से द्रव्य पर्याय का आश्रय लेकर 1 अन्त्य । (ब्या० प्र०) 2 युगपत् । (दि० प्र०) 3 द्वन्द्वः । (ब्या० प्र०) 4 व्यवहारवचन इति पाठः । (दि. प्र.) 5 पर्यायाश्रयणेऽसदंशस्य सह द्रव्यपर्यायाश्रयणे क्रमशक्तेरवक्तव्यत्वस्य विवक्षितत्वादिति पूर्ववदत्रापि संबन्धनीयम् । (दि० प्र०) 6 सप्तमोभंगः । (दि० प्र०) 7 द्रव्यपर्यायाश्रयणे वक्तुमशकोरवक्तव्यत्वस्य विवक्षितत्वादितिसम्बन्धः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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