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अष्टसहस्री
[ कारिका १६
नामभेदोपचारादुपचरितमेकमेव' वस्तु प्रमाणवाक्यस्य विषयः इति न किंचिद्वाक्यं पदवदनेकार्थं सकृत् प्रधानभावेन विभाव्यते, संकेतसहस्रणापि वाचकवाच्ययोः कर्तृ कर्मणोः शक्त्य
___ इस प्रकार से कोई भी वाक्य या पद युगपत् प्रधानभाव से अनेक अर्थ को नहीं कहते हैं । जो कर्ता और कर्मरूप वाचक-वाच्य हैं उनमें संकेत सहस्रों के द्वारा भी शक्ति और अशक्ति का उलंघन नहीं किया जा सकता है, जैसे कि कारण और कार्य की शक्ति और अशक्ति का उलंघन नहीं किया जा सकता है यह कथन ही निर्दोष सिद्ध है।
भावार्थ-शब्द एकबार प्रधानभाव से एक ही अपने अर्थ का वाचक होता है अनेक अर्थों का नहीं तो फिर जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रमाणवाक्य भी युगपत् अनेक धर्मात्मकवस्तु का प्रकाशक कैसे हो सकेगा?
इसका समाधान जैनाचार्य इस तरह से करते हैं कि जिस समय वस्तु में काल आदि की अपेक्षा अभिन्नरूप से रहने वाले सम्पूर्ण धर्मों एवं धर्मी में अभेद भाव की प्रधानता रखकर अथवा कालादि से भिन्न धर्म और धर्मी में अभेद का उपचार मानकर सम्पूर्ण धर्म और धर्मी का एक साथ कथन किया जाता है, उस समय सकलादेश होता है । इस सकलादेश से काल आदि की अभेददृष्टि अथवा अभेदोपचार की अपेक्षा वस्तु के समस्त धर्मों का एकसाथ ज्ञान होता है। अभिप्राय यह है कि गुणों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं, इसलिये गुणों को छोड़कर द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है। ____ अतएव द्रव्य का निरूपण गुणवाचक शब्दों के बिना नहीं हो सकता है इसलिये अस्तित्व आदि अनेकगुणों के समुदायरूप द्रव्य का निरंशरूप समस्तपने से अभेदवृत्ति (द्रव्याथिकनय की अपेक्षा सम्पूर्ण धर्म अभिन्न हैं) और अभेदोपचार (पर्यायाथिकनय से समस्त धर्मों के परस्पर भिन्न होने पर भी उनमें एकता का आरोप किया जाता है) से एक गुण के द्वारा प्रतिपादन होता है, इसलिये एक गुण के द्वारा अभिन्नस्वरूप के प्रतिपादन करने को सकलादेश कहते हैं । 'यह सकलादेश प्रमाण के आधीन है।' (१) काल (२) आत्मरूप (३) अर्थ (४) सम्बन्ध (५) उपकार (६) गुणिदेश (७) संसर्ग (८) शब्द ये कालादिक हैं।
इनका स्पष्टीकरण-सप्तभंगी के दो भेद हैं प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी। इनमें पूर्वोक्त प्रकार से द्रव्याथिकनय की मुख्यता और पर्यायाथिकनय की गौणता एवं पर्यायार्थिकनय की मुख्यता तथा द्रव्याथिकनय की गौणता लेकर प्रमाण सप्तभंगी घटित होती है । द्रव्याथिकनय की मुख्यता एवं पर्यायाथिकनय की गौणता कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु में अनेक धर्मों का काल आदि द्वारा अभेद सिद्ध करना । कारण यह है कि विवक्षित एक शब्द से वस्तु के एक ही धर्म का ज्ञान होता है, परन्तु विवक्षित उस एक शब्द से एक धर्म के द्वारा ही पदार्थ के अनेक धर्मों का ज्ञान हो जाता है, इसी का नाम एक साथ पदार्थ का ज्ञान होना है और यह सकलादेश के आधीन हैं । यथा-"स्यात् जीवादिवस्तु सदेव" जीवादि वस्तुएँ कथञ्चित् सत् ही हैं । ऐसा कहने पर जीवादि वस्तुओं में जिस समय अस्तित्व धर्म मौजूद है उस समय जीव में और भी अनन्त धर्म विद्यमान हैं।
1 उपचरितमेव । इति पा० । (दि० प्र०)
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