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________________ ३३६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १६ "स्वार्थमभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यमाह समवेतम् । समवेतस्य तु वचने लिङ्ग संख्यां विभक्तीश्च ॥" इति । प्रधानभावेन' च वृक्षार्थः प्रतीयते, बहुत्वसंख्या तु गुणभावेनेति न कस्यचिद्विरोधः, प्रधानगुणभावपक्षस्यैवाभिमतत्वात्, स्यादिति निपातेनानेकस्य धर्मस्याकाङ्क्षणेनैकस्यैव' प्रधानस्य गुणानपेक्षस्यापवदनात्--सर्वस्य वाचक'तत्त्वस्य गुणप्रधानार्थत्वात्, वाच्य तत्त्वस्य च तथा भूतत्वात् । तदुक्तम् "आकाक्षिणः स्यादिति वै निपातो, गुणानपेक्षे नियमेपवादः। गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं, जिनस्य ते तद्विषतामपथ्यम् ॥" श्लोकार्थ-विभक्ति आदि की अपेक्षा से रहित-निरपेक्षशब्द अपने द्रव्य को कहता है । पुनः समवेत द्रव्य के कथनानंतर पुलिंगआदि लिंग एकवचन, द्विवचन, बहुवचन आदि संख्याऔर विभक्ति को कहता है। अतएव 'वृक्षाः' इस पद के द्वारा वृक्ष अर्थ तो प्रधानरूप से प्रतीति में आ जाता है एवं बहुवचनरूप संख्या गौणरूप से प्रतीति में आती है। ___इस प्रकार से हमारे यहाँ किसी भी पद के अर्थ को करने में कोई भी विरोध नहीं आता है क्योंकि हमने तो प्रधान और गौणभावरूप द्वितीयपक्ष को ही स्वीकार किया है, अर्थात् कोई भी शब्द या पद मुख्यतया अपने एक ही अर्थ के वाचक होते हैं, अनेक के नहीं। 'वृक्ष' शब्द पहले मुख्यतया स्वाभिधेय 'वृक्षरूप' अपने अर्थ का कथन करता है । अनन्तर गौणरूप से लिंग एवं द्वित्व, बहुत्व आदि संख्या का कथन करता है अतः वृक्ष इस शब्द से प्रधानभाव से तो वृक्षरूप अपने अर्थ की एवं गौणभाव से लिंग संख्या आदि की प्रतीति होती है। अनेकधर्मों की आकांक्षा करने वाले "स्यात्" इस निपातरूप पद के द्वारा गौण की अपेक्षा से रहित एक प्रधान का ही कथन बाधित है, क्योंकि सभी वाचकतत्त्व गौण, प्रधान अर्थवाले हैं और वाच्यतत्त्व भी उसी प्रकार से गौण-प्रधान अर्थरूप ही है । स्वयंभूस्तोत्र में कहा भी है ___ इलोकार्थ-अनेक धर्मों की आकांक्षा करनेवाले मनुष्य के पास में "स्यात्" यह निपात सिद्ध शब्द है जो कि गौण की अपेक्षा से रहितमात्र प्रधान रूप के कथन का अपवाद अर्थात् निराकरण करने वाला है । इसलिये हे जिन ! आपके वचन गौण एवं प्रधानसहित दोनों ही अर्थ के कहने वाले हैं जो कि आपके विरोधी एकांतवादियों के लिये अपथ्यस्वरूप हैं। इसलिये हम जैनियों के सभी वाक्य गौण एवं प्रधानभाव के द्वारा ही अर्थ के वाचक हैं । 1 पर्यायं सहितं द्रव्यं सामान्यम् । (दि० प्र०) 2 विभक्तस्येति पा० । (दि० प्र०) 3 ततश्च । (दि० प्र०) 4 स्यादिति शब्दोच्चारोऽविवक्षितस्यानेन धर्मस्य ग्राहकः । (दि० प्र०) 5 द्योतकेन । (ब्या० प्र०) 6 अर्थस्य । (ब्या० प्र०) 7 शब्दः । (दि० प्र०) 8 अर्थः । समुदितं हेतुद्वयं प्रधानगुणभावोत्पादौ प्राक्तन एव साध्ये । (दि० प्र०) 9 अनेकधर्मस्य । वाच्यतत्त्वस्यापि गुणैः सह प्रधानत्वात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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