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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३३३ तस्याशक्तिस्तथा दारुलेखनेपीति शक्यं वक्तुम् । नापि यथा दारुणः कर्मणोऽयसालेख्यत्वे शक्तिस्तथा वज्रस्यास्ति यथा वा वज्रस्य तत्राशक्तिस्तथा दारुणोपीति निश्चयः, क्वचित्कस्यचित्कर्तृकर्मणोः शक्त्योरशक्त्योश्च प्रतिनियततया व्यवस्थितत्वात् । तथा शब्दस्यापि 'सकृदेकस्मिन्नेवार्थे प्रतिपादनशक्तिर्न पुनरनेकस्मिन्, सङ्कतस्य तच्छक्तिव्यपेक्षया तत्र प्रवृत्तेः । सेनावनादिशब्दस्यापि नानेकत्रार्थे प्रवृत्तिः, 'करितुरगरथपदातिप्रत्त्यासत्तिविशेषस्यैकस्य सेनाशब्देनाभिधानात् । वनयूथपंक्तिमालापानकग्रामादिशब्दानामप्येतेनैवानेकार्थप्रतिपादनपरत्वं प्रत्याख्यातम् । शंका-शब्दों की प्रवृत्ति संकेत के अनुसार ही देखी जाती है। एक साथ सत्त्व-असत्त्व दोनों धर्मों में संकेतित कोई शब्द उसका वाचक होवे इसमें क्या विरोध है ? जैसे जैनेन्द्रव्याकरण में "शतृ और शान" की 'सत्' यह संज्ञा है अतः 'सत्' कहने मात्र से ही शतृ और शान दोनों ही प्रत्ययों का ग्रहण हो जाता है। समाधान--यह कहना भी अयुक्त है क्योंकि शब्द में संकेत का विधान भी वाचक एवं वाच्यरूप कर्ता कर्म में विवक्षा के वश से उनकी शक्ति एवं अशक्ति में से किसी एक का अनुशरण करके ही किया जाता है। जिस प्रकार से लोहा लकड़ी का भेदन करता है, उस प्रकार से वज्र का भेदन नहीं कर सकता है। जिस प्रकार से लोहे में काष्ठ को भेदन करने की शक्ति है उस प्रकार से वज्र के भेदन करने में नहीं है, एवं जैसी वज्र को भेदन करने में उसकी अशक्ति है, उसी तरह काष्ठ के भेदने में भी अशक्ति हो ऐसा नहीं कह सकते । जिस तरह काष्ठरूप कर्म लोहे के द्वारा भेदन करने के लिये शक्य है, वैसे ही लोहे से वज्र भी फोड़ा जा सके, ऐसा नहीं है अथवा जैसे लोहा वज्र को नहीं फोड़ सकता, वैसे ही काष्ठको भी न फोड़ सके, ऐसा भी निश्चय नहीं कर सकते हैं, क्योकि कत्तो और कम एक की सामर्थ्य और असामार्थ्य प्रतिनियतरूप से ही व्यवस्थित है। ___ "उसी प्रकार से शब्द में भी युगपत् एक ही अर्थ को कहने की शक्ति है, अनेकार्थ को कहने की शक्ति नहीं है और वह संकेत उस प्रतिपादन शक्ति की अपेक्षा से ही वहाँ पर प्रवृत्त होता है" तथैव 'सेना, वन' आदि शब्द भी एक साथ अनेक अर्थ को नहीं कहते हैं किन्तु सेना शब्द के द्वारा तो 'हाथी घोड़ा रथ, पदाति का समूह रूप एक प्रत्यासत्तिविशेष ही कहा जाता है और इसी तरह से वन शब्द भी अनेक वृक्षों के समूहरूप एक ही विशेष अर्थ को कहता है, न कि अनेक को। 1 नहि । (दि० प्र०) 2 ता । (ब्या० प्र०) 3 क्वचिद्दारुणि कर्मणि कस्यचिदयसः कर्तुः शक्त्योः शक्यत्वशक्तत्त्वयोः क्वचिद्वज्र कर्मणि कस्यचिदयसः कर्तुरशक्त्यै शक्यत्वात्शक्तत्वयोरितियोज्यम् । (ब्या० प्र०) 4 एकवारम् । (दि० प्र०) 5 अर्थे संकेतस्य शब्दशक्त्यपेक्षया प्रवृत्तेः । (दि० प्र०) 6 आशंक्य । (ब्या० प्र०) 7 आसन्न । समुदायविशेषस्य । (दि० प्र०) 8 दधिगुडचातुर्जातकादि। (दि० प्र०) 9 एतेन सेनाशब्देन एकस्यैवार्थस्य प्रतिपादनद्वारेण । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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