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शेषभंग की सिद्धि ]
[ ३२६
निवर्तेत प्रमाणान्तरवत् । स्वस्यार्थस्य चैकस्यैवोपलम्भोहीतरस्यानुपलम्भः, तस्य विधायक एवान्यस्य' निषेधकः, तत्र प्रवर्तक एव वा परत्र' निवर्तक, इति तदेकोपलम्भनियमात्कस्यचित् प्रवृत्तिनिवृत्ती सिध्यतः । तदभावे सन्तानान्तरप्रमाणादिवत्' प्रवर्तकान्न कश्चित्प्रवर्तेत निवर्तकाच्च न निवर्तेत, अप्रमाणात्त्रवृत्तौ ' निवृत्तौ वा प्रमाणान्वेषणस्य वैयर्थ्यादतिप्रसङ्गाच्च । ततः प्रमाणं प्रत्यक्षमन्यद्वा " स्वार्थोपलम्भात्मना परार्थानुपलम्भात्मना च ' क्रमार्पितेन सदसदात्मकं सिद्धम् । तद्वत्प्रमेयमपि । इति सर्वं वस्तु क्रमापितद्वयाद्वैतं को नेच्छेत् ? सर्वस्य° विप्रतिपत्तुमशक्तेरनिच्छतोपि " तथा संप्रत्ययात् ।
प्रथम परिच्छेद
है वह स्वपररूप के द्वारा चक्षु को भावाभावात्मक सिद्ध कर देता है और उस एक विषय के नियम का अभाव होने पर पुरुष न तो उस ज्ञानमात्र में प्रवृत्ति करेगा और न उस ज्ञान निवृत्त ही होवेगा प्रमाणान्तर के समान । अर्थात् जैसे कि संतानांतरज्ञान-भिन्न संतान के ज्ञान से कोई मनुष्य एक विषय की उपलब्धि का अभाव होने से न उसमें प्रवृत्ति करता है और न उससे निवृत्त ही होता है ।
अपने एक ही अर्थ का उपलम्भ है और उपलब्धि के विषयभूत से अन्य का अनुपलम्भ है । उस उपलभभूत विषय का विधायक ही अन्य का निषेधक है । अतएव उस उपलंभ विषय में ही वह प्रवृत्ति करता है अथवा उससे भिन्न से निवृत्त होता है । इस प्रकार से तथाविध एकोपलंभ के नियम से किसी मनुष्य में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति सिद्ध ही हो जाती हैं और यदि आप उस एकोपलंभविषय का अभाव मानेंगे, तब तो भिन्न संतान के प्रमाण आदि के समान कोई भी प्रवर्तक (दर्शन) से न प्रवृत्ति कर सकेगा और न निवर्तक से निवृत्ति ही कर सकेगा और यदि अप्रमाण से भी आप प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति स्वीकार कर लेंगे। तब तो प्रमाण का अन्वेषण करना ही व्यर्थ हो जावेगा अथवा भ्रान्तज्ञान से भी प्रवृति एवं निवृत्ति के हो जानेरूप अतिप्रसंग दोष आ जावेगा । अतएव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ये दोनों ही प्रमाण स्वार्थोपलब्धिरूप को एवं परार्थानुपलब्धि को क्रम से अर्पित करने से सदसदात्मकरूप ही सिद्ध हैं और उसी प्रकार से प्रमेय भी स्वपररूप से सदसदात्मक ही सिद्ध है ।
इस प्रकार से सभी वस्तु को क्रम से अर्पितद्वय से द्वैतरूप कौन नहीं स्वीकार करेगा ? क्योंकि इस विषय में सभी को विसंवाद करना अशक्य ही है एवं वैसे स्वीकार करने की इच्छा न करने वालों को भी वैसा ही संप्रत्यय - अनुभव आ रहा है ।
2 अविवक्षितस्वरूपे । (दि० प्र०)
1 अपरार्थस्य । विवक्षितस्वरूपात्स्वरूपान्तरस्यार्थान्तरस्य वा । ( दि० प्र० ) 3 अन्यपुरुषप्रतिपादितज्ञानात् । ( दि० प्र०) 4 दर्शनरूपप्रमाणाच्च । (दि० प्र० ) 5 प्रमाणाभासादित्यर्थः । ( दि० प्र० ) 6 परोक्षम् । ( दि० प्र० ) 7 कृत्वा । ( ब्या० प्र० ) 8 विवक्षितेन । ( ब्या० प्र० ) 9 प्रमाणवत् । ( दि० प्र०) 10 वादिनः । सर्वस्य वस्तुनो विसंवदितुं शक्तिनं । ( दि० प्र० ) 11 पुरुषस्य सोगतस्य वा । ( दि० प्र०)
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