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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३२७ ध्यवसायान् 'स्वानुपलम्भव्यावृत्तिलक्षणं दर्शनं प्रमाणयितव्यम् । तथा हि । बुद्धिरियं यया प्रत्यासत्त्या 'कस्यचिदेवाकारमनुकरोति तथा तमेवार्थं नियमेनोपलभेत नान्यथा, पारम्पर्य - परिश्रमं परिहरेत् । ननु तज्जन्मतद्रूपतदध्यवसायेषु सत्सु नीलादौ दर्शनं प्रमाणमुपलभते, तदन्यतमापाये' तस्य प्रमाणत्वाप्रतीतेरिति चेन्न तदभावेपि स्वानुपलम्भव्यावृत्तिसद्भावादेव प्रमाणत्वप्रसिद्धेः', तज्जन्मनश्चक्षुरादिभिव्र्व्यभिचारात्तद्रूपस्य " " सन्तानान्तरसमानार्थविज्ञानेनानेकान्तात्, तद्व्यलक्षणस्य समानार्थसमनन्तरप्रत्ययेनानैकान्तिकत्वात् 2 त्रिलक्षणस्यापि विभ्रमहेतुफल विज्ञानैर्व्यभिचारात्, कामलाद्युपहतचक्षुषः ३ शुक्ले शङ्ख पीताकारज्ञानाकहलाता है, यदि इनमें से किसी एक का भी अभाव मान लेंगे तब वह दर्शन प्रमाणीक ही नहीं रहेगा । समाधान - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उपर्युक्त तज्जन्य, तद्रूप और तदध्यवसाय के अभाव में भी ज्ञान में स्वानुपलंभ व्यावृत्ति ( स्वविषय के उपलम्भ ) का सद्भाव होने से ही प्रमाणपना प्रसिद्ध है अर्थात् (ज्ञान न अपने से उत्पन्न हुआ है और न तदाकार है फिर भी अपने को विषय करता है | ) क्योंकि तज्जन्य के मानने पर चक्षु आदि इंद्रियों से व्यभिचार आता है अर्थात् ज्ञान यदि पदार्थों से उत्पन्न होकर ही उसे विषय करता है, तब तो वह चक्षु आदि इन्द्रियों से भी उत्पन्न हुआ है, अत: उन इंद्रियों को भी विषय करना चाहिये किन्तु इन्द्रियों को विषय नहीं करता है, अतः व्यभिचार दोष आता है । तद्रूप- नीलाकार के मानने में तो संतानांतर समानार्थविज्ञान के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् स्वसंतान और संतानांतर में एकार्थाकारधारित्व होने पर भी निर्विकल्पदर्शन स्वसंतान को ही विषय करता है संतानांतर को नहीं । अतः यदि ज्ञान को तदाकार होकर जानना मानेंगे, तब तो संतानांतर समानार्थविज्ञान के साथ व्यभिचार आता है । अर्थात् दो वस्तु समान आकार की हैं ज्ञान ने एक से उत्पन्न होकर उसका आकार धारण किया और उसको जाना किन्तु जब आप तदाकार को ग्रहण करना मानते हैं तब वह दूसरी भी उसी प्रथम वस्तु के आकार की है अतः वह ज्ञान तदाकार हो चुकने पर भी उसको क्यों नहीं जानता है ? अतएव ज्ञान को तदाकार मानने पर संतानांतर समानार्थविज्ञानं के साथ व्यभिचार दोष आता है, एवं तद्द्द्वय लक्षण वाला दर्शन समानार्थ और समनन्तर प्रत्यय से से व्यभिचरित होता है । तदुत्पत्ति, तदाकार और तदध्यवसायरूप तीनलक्षण से युक्त निर्विकल्पदर्शन 1 अत्र सामर्थ्यात् परार्थानुपलम्भात्मकमिति विज्ञेयं तथैवालंकारे वक्ष्यमाणत्वात् । नियतस्वविषयोपलम्भलक्षणम् । ( दि० प्र० ) 2 स्वानुपलम्भव्यावृत्तिलक्षणबुद्धिर्ज्ञानम् । ( दि० प्र० ) 3 ज्ञानम् । (दि० प्र०) 4 अर्थस्य । ( दि० प्र० ) 5 परिणमति । (दि० प्र० ) 6 तज्जन्मतद्रूपतदध्यवसायपरिश्रमं न त्यजेद्बुद्धिः । ( दि० प्र० ) 7 तज्जन्मतद्रूपतद्ध्यवसायानां मध्य एकस्यापि विनाशे । ( दि० प्र० ) 8 परोक्तं व्यतिरेकं तावदूषयन्ति । दर्शनस्य । ( दि० प्र०) 9 अन्वयञ्च दूषयन्ति । ( दि० प्र०) 10 तज्जन्मादि । दर्शनस्य । ( दि० प्र० ) 11 एकार्थो समानार्थो वा । (दि० प्र० ) 12 बस: । ( दि० प्र०) 13 कामलकाचरोगपीडितनेत्रस्य पुंसः । नुः । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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