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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३२५ क्रमापितात्स्वपररूपादिचतुष्टयद्वयात्कथंचिदुभयमिति द्वैतं वस्तु, द्वाभ्यां' सदसत्त्वाभ्यामितस्यैव द्वीतत्वात्, स्वार्थिकस्याणो विधानावेतशब्दस्य सिद्धेः । स्वपररूपादिचतुष्टयापेक्षया सह वक्तुमशक्तेरवाच्यं, तथाविधस्य पदस्य वाक्यस्य वा कस्यचिदभिधायकस्यासंभवात् । सदसदुभयभङ्गास्त्ववक्तव्योत्तराः शेषाः पञ्चमषष्ठसप्तमाः, चतुर्योन्यत्वात् । ते च स्वहेतुवशान्निर्देष्टव्याः । तद्यथा' ।—कथञ्चित्सदवक्तव्यमेव, स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षत्वे सति सहववतुमशक्तेः । कथंचिदसदवक्तव्यमेव, पररूपादिचतुष्टयापेक्षत्वे सति सह वक्तुमशक्तेः । कथंचित्सदसदवक्तव्यमेव स्वपररूपादिचतुष्टयापेक्षत्वे सति सह वक्तुमशक्तेः सदसदुभयत्वधर्मेष्वन्यतमापाये वस्तुन्यवक्तव्यत्वधर्मानुपपत्तेः' । तेषां तत्र सतामप्यविवक्षायां केवलस्यावक्तव्यत्वस्य भङ्गस्य वचनाद्विरोधानवकाशः । चतष्टय की अपेक्षा से एक साथ कहने की शब्दों में सामर्थ्य के न होने से वस्तु कथंचित् “अवाच्य" है, क्योंकि उस प्रकार के दोनों ही धर्मों के एक साथ कहने वाले कोई भी पद अथवा वाक्य संभव नहीं हैं । एवं 'सत्' 'असत्' और उभयरूप आदि के तीन भंगों में अवक्तव्य' पद अधिक जोड़ देने से पांचवें, छठे एवं सातवें भंग बन जाते हैं, जो कि आदि के चार भंगों से भिन्न ही हैं, वे अपने-अपने प्रश्न आदि कारणों के निमित्त से ही होते हैं, ऐसा समझना चाहिये। तद्यथा-"वस्तु कथंचित् सदवक्तव्य ही है" क्योंकि स्वरूपादिचतुष्टय की तो अपेक्षा है एवं . युगपत् दोनों धर्मों को कह नहीं सकते हैं । 'वस्तु कथंचित् असत्अवक्तव्य ही है', क्योंकि पररूपादिचतुष्टय की अपेक्षा है, एवं एक साथ दोनों धर्म अवाच्य हैं। ___ "वस्तु कथंचित् सत् असत्अवक्तव्य ही है" क्योंकि स्वपरचतुष्टय की तो क्रम से अपेक्षा है एवं सह अवाच्यपना है। इन 'सत्-असत्' और उभयरूप धर्मों में से किसी एक धर्म का अभाव मान लेने पर वस्तु में अवक्तव्यधर्म रह ही नहीं सकता है। (पनः केवल "अवक्तव्य" नाम का चौथा भंग कैसे बनेगा ? ) उस वस्तु में उन 'सत्-असत्' और उभयरूप धर्मों का अस्तित्व विद्यमान है किन्तु होते हुये भी उनकी विवक्षा न होने पर ही केवल 'अवक्तव्य' नाम का चौथा भंग कहा जाता है अत: इसमें विरोध का अवकाश ही नहीं है। 1 द्वाभ्यामितं द्वीतं द्वीतमेव द्वैतम् । (दि० प्र०) 2 इत्यस्य । (दि० प्र०) 3 शब्दस्य स्वपररूपादिचतुष्टयापेक्षया सह वक्तुमशक्यस्य । वर्णसमुदायलक्षणस्य पदस्य । पदसमुदायलक्षणस्य वाक्यस्याघटनात् । (दि० प्र०) 4 भंगाः। (दि० प्र०) 5 तथाहि । (ब्या० प्र०) 6 एकविनाशे । एकस्य । (दि० प्र०) 7 प्राक्तनकारिकाव्याख्यानावसाने कथितप्रकारेण । (दि० प्र०) 8 तत्र वस्तुनि तेषां सदसदुभयात्मधर्म त्रयाणां सतां विद्यमानानामविवक्षायां सत्यामेकस्यावाच्यभंगस्य वचनं घटतेऽत्रविरोधो नास्ति विवक्षिते वस्तुनि । (दि० प्र०) 9 चतुर्थस्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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