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________________ [ कारिका १५ विशेषवशात्परिवृत्तात्मनोः स्वभावभेदेपि कथञ्चिदेकत्वमस्त्येव, विच्छेदानुपलब्धेः । न हि शाब्दप्रत्यक्षवेदनयोरस्पष्टेतरप्रतिभासनस्वभावभेदोसिद्धः प्रतीत्यपह्लवप्रसङ्गात् । नापि तयोरेकवस्तुविषयत्वमेकद्रव्याश्रयत्वं चाऽसिद्धं तत्रानुसन्धानप्रत्ययसद्भावात्, यदेव मया श्रुतं तदेव दृश्यते, य एवाहमश्रौषं स एव पश्यामीति प्रतीतेर्बाधकाभावात् । तयोर्द्रव्यात्मनैकत्वमस्त्येव', विच्छेदस्यानुपलक्षणात् । 'ननुपादानोपादेयक्षण' योस्तद्भावादेवानुसंधानसिद्धेविच्छेदानुपलभेपि नैकत्वसिद्धि:, एकसन्तानत्वस्यैव' सिद्धेः, आत्मद्रव्यस्याभावादिति चेन्न तदभावे तयोरुपादानोपादेयतानुपपत्तेः । उपादानस्य कार्यकालमात्मानं " कथंचिदनयतश्चिरतर निवृत्ताविवाविशेषात्कार्योत्पत्तावपि व्यपदेशानुपपत्तेस्तादृशां" स्वरूपकत्वमस्त्येव । न च सव्येतर - ३१८ 1 दोनों ज्ञानों का स्वभाव भेद है फिर भी कथंचित्-आत्म द्रव्य की अपेक्षा से एकत्व ही है। क्योंकि विच्छेद-भेद की उपलब्धि नहीं होती है ।" अष्टसहस्र आगम ज्ञान और प्रत्यक्ष ज्ञान में अस्पष्ट एवं स्पष्ट प्रतिभास रूप स्वभाव भेद असिद्ध नहीं है । अन्यथा प्रतीति के लोप का प्रसंग आ जावेगा । एवं इन दोनों ज्ञानों का एक वस्तु को विषय करना भी असिद्ध नहीं है । तथैव एक द्रव्य (जीव ) के आश्रय रहना भी सिद्ध ही है । क्योंकि वहाँ विषय और विषय में अनुसंधान प्रत्यभिज्ञान रूप ज्ञान पाया जाता है । एवं जो मैंने सुना था उसी को देखता हूँ इस तरह एक विषयत्व भी सिद्ध ही है जो मैंने सुना था वो ही देख रहा हूँ इस प्रतीति में बाधकप का अभाव है । इसलिये इन दोनों ज्ञानों में द्रव्यात्मक रूप से एकत्व ही है क्योंकि एक ही आत्मा में श्रुतज्ञान एवं प्रत्यक्षज्ञान का विच्छेद नहीं देखा जाता है । प्रश्न - उपादान और उपादेय क्षण में उस उपादान उपादेय का सद्भाव होने से ही प्रत्यक्ष एवं आगमज्ञान में प्रत्यभिज्ञान सिद्ध है । अतएव विच्छेद की अनुपलब्धि होने पर भी एकत्व की सिद्धि नहीं है । क्योंकि एक संतान में हो वह एकत्व सिद्ध है । अतएव आत्मद्रव्य का अभाव है । उत्तर- ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि स्वरूप के एकत्व का अभाव होने पर तो उपादान और उपादेय क्षण में उपादान उपादेय भाव ही नहीं बन सकेगा । " उपादान कार्यकाल के प्रति अपने स्वरूप स्वरूप उपादान स्वरूप को कथंचित् प्राप्त न कराता हुआ चिरकाल निवृत्ति होने के समान हो विशेष न होने से कार्य की उत्पत्ति के हो जाने पर भी उसमें यह उसका है यह व्यपदेश नहीं बन 1 अस्पष्टेतर । (ब्याः प्र०) 4 जीवः । (ब्या० प्र० ) नात् । भेदस्य | ( दि० प्र० ) प्रत्ययोर्रख्यं न । (दि॰ प्र॰) ( दि० प्र०) Jain Education International 2 अन्यधानुसन्धानप्रत्ययलक्षणं कथ्यते । (दि० प्र०) 3 शब्दप्रत्यक्षयोः । (दि० प्र०) 5 यत एवानुसन्धानप्रत्ययसद्भावस्तत एव विच्छेदानुपलक्षणं प्रतिपत्तव्यम् । भेदस्यादर्श6 सोगतः । ( दि० प्र०) 7 प्रत्यक्ष परोक्षयोः । ( व्या० प्र० ) 8 एकत्र वस्तुनि तयो शब्द9 एकपर्यायस्यैव । ( व्या० प्र० ) 10 क्षणेन । ( दि० प्र० ) 11 इदमस्मादुत्पन्नमिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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