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________________ ३०८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १५ ज्ञातस्य सिद्धेरप्रतिज्ञातस्य समर्थनाघटनात् कस्यचित्प्रतिज्ञातस्य' सामर्थ्यादगम्यमानस्यापि प्रतिज्ञातत्वोपपत्तेः । इति साधीयसी सप्तभङ्गी प्रतिज्ञा, तथा नैगमादिनययोगात् । तत्र प्रथमद्वितीयभङ्गयोस्तावन्नययोगमुपदर्शयन्ति' स्वामिनः सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥ सर्वं चेतनमचेतनं वा द्रव्यं पर्यायादि वा भ्रान्तमभ्रान्तं वा स्वयमिष्टमनिष्टं वा, सदेव स्वरूपादिचतुष्टयात् को नेच्छेत् ? असदेव पररूपादिचतुष्टयात् तद्विपर्ययात्को13 नेच्छेत् ? अपितु लौकिक:14 परीक्षको वा स्याद्वादी सर्वथैकान्तवादी वा सचेतनस्तथेच्छेदेव, प्रतीतेर समर्थन नहीं किया जाता है फिर भी किसी का कथन कर देने से सामर्थ्य से गम्यमान का भी कथन किया जा सकता है । अतएव इस प्रकार से सप्तभंगो प्रतिज्ञा सिद्ध हो गई, क्योंकि उन सात प्रकारों से ही नैगम आदि नयों का प्रयोग पाया जाता है । अब स्वयं स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य पहले प्रथम और द्वितीय भंग में नय का प्रयोग दिखलाते हैं कारिकार्थ-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु सतरूप ही हैं, ऐसा कौन स्वीकार नहीं करेगा? एवं परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु असत्रूप ही हैं। यदि ऐसा नहीं स्वीकार करें तो किसी के यहाँ भी अपने-अपने इष्टतत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। कौन ऐसा व्यक्ति है जो सभी चेतन अचेतनवस्तु को अथवा द्रव्य पर्यायादि को अथवा भ्रान्त या अभ्रान्त को तथा स्वयं इष्ट अथवा अनिष्ट को स्वरूप आदि चतुष्टय की अपेक्षा से सतरूप ही स्वीकार नहीं करेगा एवं पर रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु को असत् रूप ही कौन स्वीकार नहीं करेगा ? अपितु लौकिक अथवा परीक्षक स्याद्वादी अथवा सर्वथैकांतवादी सचेतन लोग उस प्रकार से स्वीकार करेंगे ही करेंगे, क्योंकि प्रतीति का अपह्नव करना शक्य नहीं है। 1नन भवत प्रतिज्ञा तस्यैव सामर्थ्य कथ्यते तदाऽवक्तव्योत्तराणां प्रतिज्ञानत्वं कूत इत्याह । (दि० प्र०) 2 तहि कस्मात्प्रतिज्ञात्र न कृता च शब्दमात्रेण तु भंगत्रयस्यैवाभ्यूह्यत्वाघटनादित्याशंकायामाहुः कस्यचिदिति । (दि० प्र०) 3 प्रतिज्ञातस्य सदादिभंगचतुष्टयस्य । (दि० प्र०) 4 तस्य संबन्धिसामर्थ्यात् । (दि० प्र०) 5 संग्रहव्यवहार ऋजुसत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतानामादिशब्देन ग्रहणम् । (दि० प्र०) 6 सप्तभंगीमध्ये। (दि० प्र०) 7 प्रथ 8 स्वरूपस्वद्रव्यस्वक्षेत्रस्वकालचतुष्टयात् । (दि० प्र०) 9 यदि एवं कश्चिन्न वाञ्छेत् तदा कस्मिञ्चिद्वस्तुनि न प्रवर्तेत । (दि० प्र०) 10 मिथ्याज्ञानम् । (दि० प्र०) 11 ज्ञानम् । दि० प्र०) 12 स्रगादि । विषकण्टकादि । (दि० प्र०) 13 उक्तम् । (दि० प्र०) 14 लोकस्य ज्ञाता लौकिकः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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