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________________ २६० ] अष्टसहस्री [ कारिका १४ सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थेऽवक्तव्यत्वस्य, पञ्चमे सत्त्वसहितस्य, षष्ठे पुनरसत्त्वोपेतस्य, सप्तमे क्रमवत्तदुभययुक्तस्य तत्र शेषधर्मगुणभावाध्यवसायात्' । [ वक्तव्यमप्यष्टमो भंगो भवेत् का हानि ? ] स्यान्मतम् 'अवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्वे वस्तुनि वक्तव्यत्वस्यापि धर्मान्तरस्य भावादष्टमस्य कथं सप्तविध एव धर्मः सप्तभङ्गीविषयः स्यात्' इति, तदप्ययुक्तं, सत्त्वादिभिरभिधीयमानस्य वक्तव्यत्वस्य प्रसिद्धः, सामान्येन वक्तव्यत्वस्यापि विशेषेण 'वक्तव्यतायामनव चौथे भंग में अवक्तव्यत्व की प्रतीति है। पांचवें भंग में सत्त्वसहित अवक्तव्य की प्रतीति है। छठे में पुनः असत्त्व सहित अवक्तव्य है। एवं सातवें में क्रम से सत्त्व, असत्त्वरूप उभय धर्म से सहित अवक्तव्य की प्रधानभाव से प्रतीति हो रही है। इस प्रथम सत्त्व भंग में शेष असत्त्व आदि छह धर्म गौणरूप से पाये जाते हैं। [ वक्तव्य को भी आठवां भंग मानों, क्या हानि है ? ] शंका-अवक्तव्य को पृथक भिन्न धर्म सिद्ध करने पर वस्तु में वक्तव्यरूप एक आठवाँ धर्मान्तर भी विद्यमान है अतः सात प्रकार का धर्म ही सप्तभंगी का विषय है यह कथन कैसे सिद्ध हो सकता है ? समाधान-यह शंका अयुक्त है, क्योंकि सत्त्वादि के द्वारा वक्तव्य धर्म ही तो कहे जाते हैं । सामान्य से अर्थात् स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि रूप वक्तव्य धर्म को कह देने पर भी यदि आप कहें कि विशेष रूप से अर्थात् स्यादस्ति वक्तव्य स्यान्नास्ति वक्तव्य इत्यादिरूप से कहना चाहिये । तब तो अनवस्थादूषण आ जावेगा। अथवा वक्तव्य और अवक्तव्यरूप दो धर्मों की सिद्धि हो जावे। तथापि उन वक्तव्य, अवक्तव्य धर्म के द्वारा विधि और प्रतिषेध कल्पना के विषयभूत सत्त्व, असत्त्व धर्म के समान ही सप्तभंगधन्तर-भिन्नरूप ही सप्तभंगी की प्रवृत्ति हो जावेगी। अत: उस संशय के विषयभूत सात प्रकार के धर्म के नियम का विघात कथमपि नहीं हो सकेगा, कि जिससे उस विषयक संशय सात प्रकार का ही न होवे। एवं उस संशय हेतुक जिज्ञासा भी सात प्रकार की ही न होवे । अथवा उस जिज्ञासा निमित्तक प्रश्न भी सप्तधा ही न होवे अथवा जो कि एक ही वस्तु में सात प्रकार के वाक्य के नियम के हेतुक न होवें। इस प्रकार से श्री भट्टाकलंकदेव ने सत्त्वादिधर्म को विषय करने वाली वाणी सप्तभंगीरूप सम्यक ही कही है, वह सप्तभंगी वाणी स्याद्वादामतगभिगी है। इस स्यात पद का अर्थ इस कारिका में कथंचित शब्द से कहा गया है। 1 ताबहुः । (ब्या० प्र०) 2 सप्तभिः । आदिशब्देनाऽसत्त्वसदसत्त्वाख्यवाक्यद्वयं ग्राह्यं । ननु अवक्तव्यादिशब्देनापि वस्तुनोऽभिधीयमानत्वसद्भावात् कथं तद्वाक्यद्वयमेव तेन ग्राह्यमिति चेत् । न सत्त्वासत्त्वाख्यधर्मद्वयापेक्षया सदसदुभयविषयवाक्यत्रयेणैव तस्याभिधीयमानत्वादवक्तव्यत्वादि धर्मापेक्षयाऽवक्तव्यादिशब्दस्तस्याभिधीयमानत्वे सत्यप्यप्रस्तुतत्वेनाविवक्षितत्वात् । (दि० प्र०) 3 वस्तुनः । (दि० प्र०) 4 सदादिभंगत्रयरूपेण संघटत इत्यादिप्रकारेण । (दि० प्र०) 5 विशेषावक्तव्यतायामवस्थानात् इति पा० । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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