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________________ भावाभाव अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २८५ धवाक्यमिति वाक्यद्वयमेव, सदसद्वर्गास्तत्त्वमिति वचनात्, प्रमेयान्तरस्य शब्दविषयस्यासंभवादिति च न चेतसि विधेयं, 'प्रधानभावापितसदसदात्मनो वस्तुनः प्रधानभूतककधर्मात्मकादर्थादर्थान्तरत्वसिद्धेः, सत्त्ववचनेनवासत्त्ववचनेनैव वा सदसत्त्वयोः क्रमार्पितयोः प्रतिपादयितुमशक्तेः । सदसदुभयविषयं वाक्यत्रयमेवेति चायुक्तं, सहोभयवाक्यस्यावक्तव्यत्वविषयस्य व्यवस्थितेः । तथापि वाक्यचतुष्टयमेवेति 'चायुक्तं, 'सदसदुभयावक्तव्यत्वविषयस्य वाक्यान्तरत्रयस्यापि भावात्—विधिकल्पना' (१), प्रतिषेधकल्पना (२), क्रमतो विधिप्रतिषेधकल्पना' (३), सह विधिप्रतिषेधकल्पना च (४), विधिकल्पनासहविधिप्रतिषेधकल्पना च समाधान-यह कथन भी सम्यक् नहीं है, अभावैकांत का हमने खण्डन कर दिया है इसलिये विधिकल्पना की अपेक्षा से या प्रतिषेधकल्पना की अपेक्षा से भी एक ही वाक्य है, ऐसा कहना युक्त नहीं है। योग-सत्अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये विधिवाक्य है एवं असत्अर्थ का कथन करने के लिये प्रतिषेधवाक्य है। इस प्रकार से दो ही वाक्य हैं, जो कि परस्परनिरपेक्ष हैं क्योंकि हमारे यहाँ "सदसद्वर्गास्तत्त्वमिति" कथन पाया जाता है अर्थात्-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये सत्रूप हैं और निरपेक्षअभाव पदार्थ असत्रूप है । एवं सत्-असत् को छोड़कर शब्द का विषयभूत भिन्न प्रमेय ही असंभव है। जैन-ऐसा भी कथन मन में नहीं समझना चाहिये क्योंकि प्रधानभाव से विवक्षित संदप्सदात्मक वस्तु प्रधानभूत एक-एक धर्मात्मक अर्थ से अर्थान्तररूप सिद्ध है, क्योंकि सत्त्ववचन से ही अथवा असत्त्ववचन से ही क्रम से अपित्न सत्-असत् का प्रतिपादन करना शक्य नहीं है। शंका-सत्-असत् और उभय को विषय करने वाले तीन ही वाक्य हैं । समाधान-यह कथन भी अयुक्त ही है, क्योंकि युगपत् सत्-असत्रूप उभय वाक्य को कहना अशक्य है, अत. अवक्तव्य को विषय करने वाला वाक्य भी व्यवस्थित है। शंका-फिर भी वाक्य चार ही हो सकेंगे। समाधान - नहीं, सद्, असद्, उभयअवक्तव्य को विषय करने वाले तीन वाक्य और भी हैं। 1 विवक्षित । (ब्या० प्र०) 2 कथञ्चित् । (ब्या० प्र०) 3 शिष्येणोक्तम् । (ब्या० प्र०) 4 तटस्थ्यचोद्यम् । (ब्या० प्र०) 5 भासहित । सदवक्तव्यमित्यादि । तदेव । यस्य । (ब्या० प्र०) 6 प्रधानभावापितसदवक्तव्यत्वाख्यपञ्चमधर्मात्मनो वस्तुनः प्रधानभूतकैकधर्मात्मकादर्थादर्थान्तरस्वसिद्धेः सत्यवचनेनैवावक्तव्यत्ववचनेनैव वा सदवक्तव्यत्वयोः क्रमापितयोः प्रतिपादयितुमशक्तेः । एवं शेषधर्मद्वयेऽपि योजनीयम् । अस्तित्वनास्तित्वाप्यतृतीयधर्मस्य ग्रन्थकर्तृभिरेव समर्थितत्वात् । (दि० प्र०) 7 सदेव । (ब्या० प्र०) 8 स्यादसदेव । (ब्या० प्र०) १ सदसत् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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