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________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २७७ व्यवसायात्मन' एवादृष्टविशेषादुत्पत्तिर्वेष्यते ? तेन 2 नीलादेर्व्यवसाये तत्क्षणक्षयस्वर्गप्रापशक्त्यादेरपि व्यवसायप्रसङ्गान्नाक्षज्ञानं व्यवसायात्मकमिष्टमिति चेत् तत एव मानसप्रत्यक्षमपि व्यवसायात्मकं मा भूत् । तस्य क्षणक्षयाद्यविषयत्वान्न तद्व्यवसायित्वमिति चेत् एवाक्षज्ञानस्यापि तन्मा भूत् । तथा सति नीलादे: 4 क्षणक्षयादिरन्य: ' स्यात्, तद्व्यवसायेप्यव्यवसायात् कुटात्पिशाचादिवदिति चेत्तर्हि मानसप्रत्यक्षेणापि नीलादिव्यवसायेपि क्षणक्षयादेरव्यवसायात्ततो भेदोस्तु तद्वदेव, सर्वथा विशेषाभावात् । कथञ्चिदक्षज्ञानस्य व्यवसायात्मकत्वे तु मानसप्रत्यक्षकल्पनापि न स्यात्, प्रयोजनाभावात् ', तत्प्रयोजनस्याक्षज्ञानादेव सिद्धेः । एतेनाव्यवसायात्मकमपि मानसप्रत्यक्षं कल्पयन् प्रतिक्षिप्तः । ननु " निर्विकल्पकाद जैन - तब तो इस प्रकार से आप बौद्ध अदृष्टविशेष से स्वयं व्यवसायात्मक अक्षज्ञान को ही उत्पत्ति क्यों नहीं मान लेते हैं ? बौद्ध - स्वयं व्यवसायात्मकलक्षण अक्षज्ञान के द्वारा नीलादि का व्यवसाय स्वीकार करने पर तत्क्षणक्षय स्वर्गप्रापण शक्त्यादि के भी व्यवसाय का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा । इसीलिये अक्षज्ञान को व्यवसायात्मक मानना हमें इष्ट नहीं है । जैन -- उसी प्रकार से स्वयं व्यवसायात्मक मानसप्रत्यक्ष के द्वारा नीलादि का व्यवसाय स्वीकार करने पर तत्क्षणक्षय स्वर्गप्रापण शक्ति आदि का व्यवसाय स्वीकार किया है और पुनः वह मानसप्रत्यक्ष भी व्यवसायात्मक नहीं हो सकेगा । बौद्ध - वह मानसप्रत्यक्ष क्षणक्षय आदि एवं स्वर्गप्रापण शक्ति आदि को विषय नहीं कर सकने से अव्यवसायी है | जैन — उसी प्रकार से क्षणक्षयादि को अविषय करने वाला होने से वह अक्षज्ञान भी तद्व्यवसायी नहीं हो सकेगा और उस प्रकार से अक्षज्ञान नीलादि को तो विषय करता है और क्षणक्षयादि को विषय नहीं करता है । क्योंकि आपके मत में तो नीलादि से तो क्षणक्षय भिन्न नहीं है, क्योंकि वह उसका स्वभाव ही है और उपर्युक्त मान्यता से तो नीलादि से क्षणक्षयादि भिन्न मानना पड़ेगा । बौद्ध - उसका व्यवसाय होने पर भी व्यवसाय नहीं होता है, जैसे कि कूट के प्रतीयमान होने पर भी पिशाच प्रतीति में नहीं आता है, अतः पिशाच उससे भिन्न ही है । जैन -- तब तो मानस प्रत्यक्ष के द्वारा भी नीलादि का व्यवसाय तो होता है परन्तु क्षणक्षयादि का तो व्यवसाय नहीं होता है, अतः उसी प्रकार से उससे उसमें भी भेद हो जावे, क्योंकि इन्द्रिय 1 ता ( दि० प्र० ) 2 अक्षज्ञानस्य व्यवसायात्मकत्वानं गी का रात्सोगताभ्युपगतं मानसप्रत्यक्षमपि । ( दि० प्र० ) 3 नीलादिव्यवसायात्मकं भवतु न तु क्षणक्षयव्यवसायात्मकं तथापि स्वमतविरोधः । परः । ( ब्या० प्र० ) 4 का । ( ब्या० प्र० ) 5 नीलादेः सकाशात् क्षणक्षयो भिन्नो न भवति नीलादेस्तश्च भावत्वात् इति न । ( व्या० प्र० ) 6 न तथा निरंशत्वात् । ( ब्या० प्र० ) 7 इन्द्रियप्रत्यक्षादेव स्मृतिरस्तु । ( व्या० प्र०) 8 आह सौगतः, हे स्याद्वादिन् ! अस्मभ्युपगतात् निर्विकल्पकादपि इन्द्रियज्ञानात् । ( दि० प्र० ) 9 बहुवारं स्मृत्वाऽभ्यासः । (दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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