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________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २७५ विकल्पादनुमानाद्वा, तस्य विशेषाविषयत्वात्, तदुभयविषयस्य च कस्यचित्प्रमाणस्यानभ्युपगमात् । तदन्यतरविषयेण तयोरेकत्वाध्यवसायेतिप्रसङ्गात् त्रिविप्रकृष्टेतरयोरप्येकत्वाध्यवसायोक्षज्ञानात्प्रसज्येत । किं च शब्दार्थयोः संबन्धस्यास्वाभाविकत्वे कथमर्थमात्रं पश्यन् शब्दमनुस्मरेत्10 शब्दं श्रृण्वन् तदर्थ वा? यतोयं व्यवसायः सौगतस्य सिध्येत् । न हि सह्यमात्रं पश्यन् विन्ध्यस्य स्मरेत् । स्यान्मतं 'शब्दस्य विकल्प्येन तदुत्पत्तिलक्षणसंबन्धोपगमात् तस्य च 13दृश्येनैकत्वाध्यवसायाद्विशेषस्यानुभवेपि शब्दं तदर्थं वा एक को विषय करके भी यदि उन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय आप स्वीकार करें, तब तो अतिप्रसंगदोष दुर्निवार है। यथा-त्रिविप्रकृष्ट अर्थात् देश-काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट तथा इतर अर्थात् अविप्रकृष्ट पदार्थों में भी इन्द्रियज्ञान से एकत्व के अध्यवसाय का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। और दूसरी बात यह है कि शब्द और अर्थ में जो वाच्य-वाचक संबंध है, उसे अस्वाभाविक स्वीकार करने पर पुनः अर्थमात्र को देखता हुआ बौद्ध शब्द का स्मरण कैसे कर सकेगा? अथवा शब्द को सुनते हुए उसके अर्थका स्मरण भी कैसे कर सकेगा, जिससे कि सौगत को यह व्यवसाय सिद्ध हो सके। अर्थात् कथमपि सिद्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि कोई भी सह्यपर्वतमात्र को देखते हुये विंध्यपर्वत का स्मरण नहीं करता है। बौद्ध-हमने शब्द का विकल्प-समानार्थ नीलादि के साथ तदुत्पत्तिलक्षण संबंध स्वीकार किया है, अतः उस शब्द और विकल्प्य का दृश्य के साथ एकत्व अध्यवसाय होने से विशेष का अनुभव होने पर भी शब्द और उसके अर्थ को अथवा विकल्प्य को स्मरण करने में वह व्यवहारी समर्थ होता है, क्योंकि उसमें प्रवृत्ति देखी जाती है। जैन-यह कथन भी असमीचीन ही है, क्योंकि किसी भी प्रमाण से दृश्य और विकल्प्य में एकत्व का अध्यवसाय असंभव ही है. ऐसा हमने ऊपर कहा ही है, क्योंकि दृश्य -स्वलक्षणरूप क्षणिक है और सामान्य कुछ काल स्थायी है । अतएव प्रत्यक्ष को स्वतः ही व्यवसायात्मक स्वीकार करना चाहिये किन्तु अभिधान- शब्दजात्यादि की योजना से नहीं। 1 विकल्पस्यानुमानस्य बा। (दि० प्र०) 2 स्वलक्षण । (दि० प्र०) 3 सामान्यविशेषोभयग्राहक किञ्चित्प्रमाणं सौगतै भ्युपगम्यते यतः। (दि० प्र०) 4 सामान्य विशेषयोर्मध्ये । (ब्या० प्र०) 5 तयोः सामान्यविशेषयोर्मध्ये एकस्य ग्राहकेण केनचित्प्रमाणेन कृत्वा तयोरेकत्वमस्तीत्यंगीकारेऽतिप्रसंग: स्यात् । बसः । प्रमाणेन । (दि० प्र०) 6 तयोर्द्वयोर्मध्ये एकस्य सामान्यस्य विशेषस्य वाऽन्यतरेण प्रत्यक्षेण विकल्पेन वा तयोरेकत्वाध्यवसाये। (दि० प्र०) 7 वाचकलक्षणस्य । (दि० प्र०) 8 घटादि । (दि० प्र०) 9 शब्दार्थयो: स्वाभाविक: सम्बन्धोस्तौति स्याद्वादिभिरभ्युपगम्यते ननु परेण सौगतेन । (दि० प्र०) 10 को वा शब्दोस्य वात्रको भवतीति । (दि०प्र०) 11 सौगतमतप्रसिद्धः शब्दादर्थप्रतिपत्तिलक्षण । (दि० प्र०) 12 तस्माद्विकल्पादत्पद्यते शब्द इति तदुत्पत्तिलक्षणः सम्बन्धः । शब्दस्य उत्पत्तिलक्षण: विकल्पेन घटते । (दि० प्र०) 13 स्वलक्षणेन । (दि. प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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