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( ३३ )
जब भागते हुए इन्हें आहट मिली तब निकलंक ने भाई से कहा- भाई ! आप एकपाठी हैं--अतः आपके द्वारा जैन-शासन की विशेष प्रभावना हो सकती है अतः आप इस तालाब के कमलपत्र में छिपकर अपनी रक्षा कीजिये। इतना कहकर वे अत्यधिक वेग से भागने लगे । इधर अकलंक ने कोई उपाय न देख अपनी रक्षा कमल पत्र में छिपकर की। निकलंक के साथ एक धोबी भी भागा, तब ये दोनों मारे गये।
कुछ दिन बाद एक घटना हुई वह ऐसी है--
रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने फाल्गुन की आष्टान्हिका में रथयात्रा महोत्सव कराना चाहा । उस समय बौद्धों के प्रधान आचार्य 'संघश्री' ने राजा के पास आकर कहा कि जब कोई जैन मेरे से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर लेगा तभी यह जैन रथ निकल सकेगा अन्यथा नहीं । महाराज ने यह बात रानी से कह दी। रानी अत्यधिक चितित हो जिनमंदिर में गई और वहाँ मनियों को नमस्कार कर बोली प्रभो! आप में से कोई भी इस बौद्धगुरु से शास्त्रार्थ करके उसे पराजित कर मेरा रथ निकलवाइये । मूनि बोले-रानी! हम लोगों में एक भी ऐसा विद्वान नहीं है। हाँ, मान्यखेटपुर में ऐसे विद्वान् मिल सकते हैं। रानी बोली । गुरुवर ! अब मान्यखेटपुर से विद्वान् आने का समय कहाँ है ? वह चिंतित हो जिनेन्द्रदेव के समक्ष पहुंची और प्रार्थना करते हुए बोली-भगवन् ! यदि इस समय जैन शासन की रक्षा नहीं होगी तो मेरा जीना किस काम का ? अतः अब मैं चतुराहार का त्याग कर आपकी ही शरण लेती हूँ। ऐसा कहकर उसने कायोत्सर्ग धारण कर लिया।
उसके निश्चल ध्यान के प्रभाव से पद्मावती देवी का आसन कंपित हुआ। उसने जाकर कहा देवि ! तुम चिन्ता छोड़ो, उठो, कल ही अकलंकदेव आयेंगे जो कि तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने के लिये कल्पवक्ष होंगे। रानी ने घर आकर यत्र-तत्र किंकर दौड़ाये । अकलंकदेव बगीचे में अशोकवृक्ष के नीचे ठहरे हैं सुनकर वहाँ पहुँची । भक्तिभाव से उनकी पूजा की और अश्रु गिराते हुए अपनी विपदा कह सुनाई । अकलंकदेव ने उसे आश्वासन दिया और वहां आये। राजसभा में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। प्रथम दिन ही 'संघश्री' घबड़ा गया और उसने अपने इष्टदेव की आराधना करके तारादेवी को शास्त्रार्थ करने के लिये घट में उतारा।
छह महीने तक शास्त्रार्थ चलता रहा किन्तु तारादेवी भी अकलंकदेव को पराजित नहीं कर सकी । अन्त में अकलंक को चितातुर देख चक्रेश्वरी देवी ने उन्हें उपाय बतलाया। प्रातः अकलंकदेव ने देवी से समुचित प्रत्युत्तर न मिलने से परदे के अन्दर घुसकर घड़े को लात मारी जिससे वह देवी पराजित हो भाग गई और अकलंकदेव के साथ-साथ जैन शासन की विजय हो गई। रानी के द्वारा कराई जाने वाली रथयात्रा बड़े धूमधाम से निकली और जैन धर्म की महती प्रभावना हई। श्री मल्लिषेणप्रशस्ति में इनके विषय में विशेष श्लोक पाये जाते हैं । यथा
तारा येन विनिजिता घटकुटीगूढावतारा सम। बौद्धों धृतपीठपीडितकुदृग्देवात्तसेवांजलिः ॥ प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिजरजस्नानं च यस्याचरत् ।
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलंकः कृती ॥२०॥ चूणि “यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्य निरवद्यया-विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते ।"
राजन्साहसतुंग! संति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किंतु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः। त्वद्वत्संति बुधा न संति कवयो वादीश्वरा वाग्निनो। नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधा ॥२१॥
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