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________________ २६६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ सिद्धिः ? नाममात्रेपि सहस्मृतिरयुक्तव, 'तन्नामाक्षरमात्राणामपि क्रमशोध्यवसानात्, अध्यवसानाभावे स्मतेरयोगात् क्षणक्षयादिवत् । न च युगपत्तदध्यवसायः संभवति, विरोधात्। अन्यथा संकुला प्रतिपत्तिः स्यात्, नीलमिति नाम्नि नकारादीनां परस्परविविक्तानामप्रतिपत्तेः । किञ्चाभिलापस्य पदलक्षणस्य' तदंशानां च वर्णानां नामविशेषस्य स्मृतावसत्यां व्यवसायः11 स्यात् सत्यां वा ? नाम्नो नामान्तरेण विनापि स्मृतौ केवलार्थव्यवसायः किं न स्यात् ? स्वाभिधानविशेषापेक्षा एवार्था निश्चयैर्व्यवसीयन्ते इत्येकान्तस्य त्यागात. नाम्नः स्वलक्षणस्यापि12 स्वाभिधानविशेषानपेक्षस्यैव व्यवसायवचनात् । तदवचने13 वा न क्वचिद्व्यवसायः स्यात्, नामतदंशानामत्यवसाये नामार्थव्यवसायायोगात् । उस नाम के अक्षर, मात्रायें, स्वर आदिकों का क्रम से ही अध्यवसान-निर्णय होता है, क्योंकि युगपत् निर्णय का अभाव होने से स्मृति का योग नहीं बन सकता है, जैसे कि क्षणक्षय आदि में निर्णय का अभाव होने से स्मृति नहीं हो सकती है, क्योंकि उसका उसी काल में नाश हो जाता है। अतः युगपत् उनका अध्यवसाय संभव नहीं है, क्योंकि विरोध आता है। अन्यथा संकुल-मिश्रित हो प्रतिपत्ति होगी। "नीलं" इस नाम के लेने पर नकार आदिकों का परस्पर में भिन्न-भिन्न रूप से ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि उनका युगपत् अध्यवसाय हो जावेगा। और दूसरी बात यह है कि पदलक्षण अभिलाप और उसके अंश वर्गों के नाम विशेष की स्मृति के नहीं होने पर अभिलाप-शब्द का व्यवसाय होता है, या स्मृति के होने पर ? यदि नाम-पदलक्षण अभिलाप का नामान्तर के बिना स्मरण हो जाता है, तब तो शब्द के रहितपने से ही केवल अर्थ का निर्णय क्यों नहीं हो जावेगा? क्योंकि अपने नामविशेष की अपेक्षा रखने वाले ही अर्थ निश्चय-विकल्पों के द्वारा निश्चित किये जाते हैं । इस प्रकार के सौगतमत के एकांत कथन का त्याग हो जाता है क्योंकि आप सौगत के यहाँ तो स्वलक्षणरूप नाम का अपने शब्दविशेष की अपेक्षा के बिना ही निश्चय स्वीकार किया है। अर्थात् स्वलक्षणरूप नाम का अभाव होने पर भी व्यवसाय माना है । अथवा यदि आप नाम का व्यवसाय स्वीकार नहीं करगे, तब तो कहीं पर भी निश्चय नहीं होगा, क्यों नाम-- शब्द और उसके अंश-स्वर, व्यञ्जन का निश्चय न नाम के अर्थ का निर्णय भी कभी नहीं हो सकेगा। 1 नीलवस्तुः । (दि० प्र०) 2 आशंक्य । (ब्या० प्र०) 3 धकारटकाराध्यवसाययोः परस्परं विरोधात् । (व्या० प्र०) 4 विरोधस्यानङ्गीकार:। (ब्या० प्र०) 5 संकीर्णाः । (दि० प्र०) 6 नकारेकारलकाराऽकारानस्वराणां पञ्चवर्णानाम् । (दि० प्र०) 7 अदोषोयं प्रत्यक्षस्याव्यवसायहेतुत्वादित्यत्रैव दूषणान्तरमाहुः कि भिलापस्येति । (दि० प्र०) 8 शब्दस्य । (ब्या० प्र०) 9 स्वलक्षणस्य इति पा० । (दि० प्र०) 10 शब्दाभिधेयस्य। अभिलापः । (दि० प्र०)11 स्मृतिरूपो व्यवसाय: स्मृत्यन्तरे सति स्यादसति वा इत्यभिप्रायोस्य वाक्यस्यावगन्तव्यः नाम्नो नामान्तरेण विनापि स्मृतादित्युत्तरत्र वक्ष्यमाणत्त्वात् । (दि० प्र०) 12 अर्थस्य । (दि० प्र०) 13 तस्य स्वाभिधानविशेषानपेक्षस्यानङ्गीकारे क्वचिदर्थे । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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