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________________ २६० ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ दिकल्पनात्मक: स्यादिति समानः पर्यनुयोगः । विकल्पस्य जात्यादिविषयत्वाददोष इति चेन्न, प्रत्यक्षवत्तस्य' जात्यादिविषयत्वविरोधात् । यथैव हि प्रत्यक्षस्याभिलापसंसर्गयोग्यता नास्ति तथा तत्समनन्तरभाविनोपि' विकल्पस्य, तस्याप्यभिलपनेनाभिलप्यमानेन च जात्यादिना' संसर्गासंभवात्, स्वोपादानसजातीयत्वात् । कथमिदानीं विकल्पो जात्यादिव्यवसायीति चेन्न कथमपि । तथा हि । किञ्चित्केनचिद्विशिष्टं गृह्यमाणं क्वचिद्विशेषणविशेष्यतत्संबन्धव्यवस्थाग्रहणमपेक्षते दण्डिवत् । रूप होने से ही विकल्प विकल्पात्मक है, न कि प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने से। इसलिये कोई दोष नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रत्यक्ष के समान उस विकल्प में जात्यादि के विषय करने का विरोध है, क्योंकि जिस प्रकार से निर्विकल्प प्रत्यक्ष में शब्द के संसर्ग की योग्यता नहीं है, उसी प्रकार से उसके समनन्तर भावो विकल्प में भी नहीं है। क्योंकि उस विकल्प में भी शब्द और अभिलप्यमान-जात्यादि के संसर्ग का अभाव है, कारण सविकल्प अपने उपादान का सजातीय है । अर्थात् निर्विकल्परूप उपादान से उत्पन्न हुआ विकल्प भी शब्द के संसर्ग से रहित ही होगा, क्योंकि वह अपने उपादान का सजातीय ही होगा। बौद्ध–यदि ऐसी बात है, तब तो इस समय जो विकल्प जात्यादि का निश्चय करता है, सो कैसे करता है ? जैन-नहीं क्योंकि हमारे सिद्धांतानुसार तो विकल्प जात्यादि का व्यवसाय करने वाला हो ही नहीं सकता। तथाहि जब कोई वस्तु किसी जात्यादिरूप से विशिष्ट ग्रहण करने में आती है, तो वह "दण्डी" इस प्रत्यय की तरह कहीं पर विशेष्य की और विशेषण-विशेष्य रूप सम्बन्ध की व्यवस्था के ग्रहण की अपेक्षा रखती है। कहा भी है 1 सौगतेन स्वयमभिलापरहितत्वादेव स्वलक्षणादर्थाविकल्पोत्पत्त्यनभ्युपगमात् । जातिक्रियाद्रव्यगुणसंज्ञाः पञ्चैव कल्पना तलाख्यो यथा क्रममित्येवं कल्पनारहितात । (दि० प्र०) 2 ननू चेतनान्निविकल्पकाच्चेतनस्य विकल्पोत्पत्तिर्घटते । नत्वचेतनादर्थादिति च न मन्तव्यम् । अचेतनादर्थाच्चेतननिविकल्पकस्याप्यनुत्पत्तिप्राङ्गात् । (दि० प्र०) 3 जात्यादिविषयत्वादेव विकल्पत्वं न तु जात्यादिविकल्पनात्मकत्वादतो नोक्त दोष इत्यर्थः । (दि० प्र०) 4 विकल्पस्य । (दि० प्र०) 5 व्यक्तीकरणम् । (दि० प्र०) 6 प्रत्यक्षम् । (दि० प्र०) 7 अभिलाप्यसंसर्गायोग्यतास्ति । (दि० प्र०) 8 अर्थेन । (दि० प्र०)9 आदिशब्देन द्रव्यगुण क्रियाणां ग्रहणम् । अभिलापस्य तु स्वयमेव ग्रन्थकारैरभिलपनेनेति प्रागेव पृथगुहिष्टत्वात् । (दि० प्र०) 10 निर्विकल्पकेन सजातीयत्वं विकल्पस्यातश्च प्रत्यक्षवद्विकल्पोप्यभिलापाभाव इति भावः । प्रत्यक्षलक्षणस्वकीयोपादानसदृशत्वाद्विकल्पस्य । (दि० प्र०) 11 सोगतीयं वचः । (दि० प्र०) 12 अतः स्याद्वादी सौगताभिप्रायेण सौगतसिद्धान्तमुल्लेख्यं विकल्पज्ञानं जात्यादिव्यवसायकं कथमपि न भवतीति दर्शयति । (दि० प्र०) 13 निश्चयम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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