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________________ अभाव एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २४७ तत्र शौद्धोदनेरेव कथं प्रज्ञापराधिनी। बभूवेति वयं तावद्बहु विस्मयमास्महे ॥१॥ तत्राद्यापि3 4जडासक्तास्तमसो नापरं परम् । विभ्रमे विभ्रमे तेषां विभ्रमोपि न सिद्धयति ॥२॥ इति । ततो 'नाभावैकान्तः श्रेयान्, स्वेष्टस्य दृष्टबाधनाद्भावकान्तवत् । परस्परनिरपेक्षभावाभावैकान्तपक्षोपि न क्षेमङ्करः, तत एवेत्यावेदयन्ति स्वामिनः । श्लोकार्थ-बौद्धों के यहाँ तो यह अपराधिनी बुद्धि कैसी है कि सब विभ्रमस्वरूप है ? हमें तो इसमें बहुत ही आश्चर्य हो रहा है । ये बौद्ध लोग आज भी मूढ़ात्मा ही है, इससे बढ़कर मोह अंधकार और क्या हो सकता है, जो कि विभ्रम में भी विभ्रम मान रहे हैं ? परन्तु इस प्रकार से तो उनके यहाँ विभ्रम भी सिद्ध नहीं हो सकता है। इसलिये अभावएकान्तपक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उनके इष्ट-नैरात्म्य (शून्यवाद) में प्रत्यक्ष से ही बाधा आती है, जैसे कि भावैकान्तवाद में बाधा आती है। 1 भट्टाकलंकदेवाः । (ब्या० प्र०) 2 बहुविस्मयो यथा भवति तथा । (दि० प्र०) 3 प्रज्ञापराधिनी शौद्धोदनी । (ब्या० प्र०) 4 जनाः सक्तास्तमसो इति पा० । (व्या० प्र०) 5 अन्धकारत्वेन सम्बद्धाः । अज्ञानात् । (दि० प्र०) 6 अभ्यत् । (दि० प्र०) 7 सौगतानाम् । (ब्या० प्र०) 8 हेतोः । (दि० प्र०) १ यतः एवं पूर्वोक्तम् । (दि.३०) 10 प्रत्यक्षेण । (दि.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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