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________________ २३० ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ ___ मानसस्य तु नास्तिताज्ञानस्य स्वकारणसामग्रीवशादुत्पन्नस्याभावपरिच्छेदकत्वे' तदेवं प्रमाणान्तरं, प्रतिबन्धनियमाभावात् । इति यथोदितदोषं परिजिहीर्षणा वस्तुधर्मस्यैवाभावस्य, प्रतिपत्तिरभ्युपगन्तव्या, तस्याः प्रतिक्षेपापायात् । ततो न भावैकान्ते समीहितसिद्धिः । प्रमाणद्वय की संख्या को विघटित कर देता है । क्योंकि दो प्रमाण के साथ इस अभाव का अविनाभाव नियम नहीं है । अर्थात् अभाव का लक्षण देखिये-- श्लोकार्थ-पहले वस्तु के सद्भाव को ग्रहण करके और अपने प्रति योगी को स्मरण करके जो मन में "नास्ति' इस प्रकार का ज्ञान होता है वही अभाव प्रमाण है। वह इंद्रियों की अपेक्षा से रहित ही उत्पन्न होता है, वह नास्तिरूप ज्ञान आप बौद्धों की दो प्रमाण की संख्या को विघटित करके तीसरा ही है, ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ-बिचारे बौद्ध ने अनेक दोषों के आक्षेपों से डरकर कहा कि भैया ! यदि इतने दोष आते हैं, तब तो हम अभाव को भी प्रमेयरूप मान लेंगे, बस झगड़ा समाप्त हो जावेगा। तब आचार्य उसको अभाव के प्रमेयरूप मानने में भी दोषारोपण दिखाते हैं। आचार्य कहते हैं कि भोले भाई ! तुम अभाव को प्रमेयरूप मानने तो चले हो किंतु तम्हारे यहाँ शक्य नहीं है देखो! इतने भोलेपन से घबड़ाकर कहीं अपने मूल सिद्धांत को न खो बैठो। यदि तुम अभाव को प्रमेय मान भी लोगे तो होगा क्या? तुम्हें उस अभाव प्रमेय को विषय करने वाला कोई न कोई तीसरा प्रमाण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारे द्वारा मान्य प्रत्यक्ष और अनुमान तो कथमपि इस अभाव को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं। पुनः तुम्हारी मान्य प्रमाण दो की संख्या नहीं बन सकेगी। अतः तुम अपने आप को मत भूलो जहाँ के तहाँ हो बने रहो यही सबसे अच्छा है और यदि घबड़ाकर तीसरा प्रमाण मान भी लोगे तो भी तुम बौद्ध नहीं कहलावोगे सांख्य, जैनादि बन जावोगे क्योंकि इन लोगों ने ही दो से अधिक प्रमाण माने हैं। । दूसरी बात यह है कि आप बौद्धों के यहाँ ज्ञान को पदार्थ से उत्पन्न हुआ मानते हैं। अर्थात् आप के यहाँ ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है पुनः पदार्थ के आकार का होकर ही वह ज्ञान उस पदार्थ को जानता है और प्रकाश को भी आपने ज्ञान का कारण माना है। इस पर आचार्यों ने कहा है कि "नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत' अर्थात् पदार्थ और प्रकाश ज्ञान में कारण नहीं है क्योंकि वे दोनों ही तो ज्ञान के विषय हैं जैसे अंधकार आपकी मान्यतानुसार ज्ञान का विषय है किंतु ज्ञान का कारण नहीं है। अत: आप के यहां कोई भी ज्ञान नैरात्म्य-तुच्छाभावरूप अभाव से उत्पन्न तो हो नहीं सकता है पुनः उस अभाव को विषय कैसे करेगा ? गधे के सींग से कोई चीज बनती है क्या? - 1 अंगीक्रियमाणे । (दि० प्र०) 2 तदेवमानसंज्ञानं तृतीयं प्रमाणम् सौगतानां युक्ति बलादायातम् । (दि० प्र०) 3 अभावज्ञानस्यार्थेन सह तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणव्याप्तिः । (दि० प्र०) 4 कारणात् । (दि० प्र०) 5 प्रागनन्तरमेवोक्तदूषणम् । (दि० प्र०) 6 प्रतिक्षेपायोगादिति पाठ० । (दि० प्र०) निराकरणसम्भवात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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