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________________ अत्यन्ताभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २२३ तद्विषयोपि' भावस्वभाव एवाभावः । कस्यचिदेकस्य कैवल्यमितरस्य वैकल्यमिति ब्रुवन्नपि देवानांप्रियो दुर्विदग्धबौद्धो नावधारयति', 'भावाभावप्रतिपत्तेरभावाभ्युपगमात् । सोयं स्वयं अनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठित: शब्दार्थसिविधो धर्मों भावाभावोभयाश्रित । स्वभावानुमान मानोगे, तब तो उससे भी वह अभाव स्वभावरूप बन जावेगा। तथा अनुपलब्धिहेतु से भी अभाव का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि घट से भिन्न भूतल का ज्ञान हो जाता है। अतः अभाव को विषय करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है। __ जैन-किसी भूतल का कैवल्य (होना) इतर घटादि का वैकल्य (नहीं होना) है इस प्रकार से कहता हुआ भी 'देवानांप्रियः'-दुर्विदग्ध बौद्ध ही समझ नहीं सका है, क्योंकि इस कथन में भाव और अभाव इन दोनों की प्रतिपत्ति होने से उसने अभाव को तो स्वीकार कर लिया है। अर्थात् "इस भूतल पर घट नहीं है क्योंकि उसकी अनुपलब्धि है, इस प्रकार से इसमें भावरूप भूतल और अभावरूप घट दोनों का ज्ञान हो रहा है। पन: ऐसा स्वीकार करता हआ भी बौद्ध कहता है कि अभाव का बोध नहीं होता है, अतः वह मूर्ख ही है क्योंकि स्वयं उसने ऐसा कहा है कि श्लोकार्थ-अनादि काल की वासना से उत्पन्न हुये विकल्प से युक्त शब्द का अर्थ तीन प्रकार के धर्म वाला है-भाव, अभाव और उभयरूप। इन तीन धर्मों के निमित्त से होने वाला अर्थ तीन प्रकार का है। इस प्रकार से परमार्थतः भाव और उभय इन दोनों का ज्ञान हो जाने से अभाव को भी प्राप्त करता हुआ-समझता हुआ पुनः अभाव के ज्ञान करने में किस प्रकार से उपर्युक्त प्रश्नों को करता है ? यदि वह परमार्थ से अस्वस्थ नहीं है तब तो उपर्युक्त प्रश्न कर नहीं सकता था, अतः वास्तव में वह स्वस्थ नहीं है, स्वयं अस्वस्थ ही है ऐसा ज्ञात होता है। विशेषार्थ-जैनाचार्यों ने अत्यंताभाव का लक्षण बताते हये यह प्रकट किया है कि यदि आप लोग अत्यंताभाव को नहीं मानोगे तो सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप से शून्य होने से निःस्वरूप हो जावेंगे किसी का कोई निजी स्वरूप ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। अथवा सभी वस्तुयें सर्वात्मक भी हो जावेंगी क्योंकि एक वस्तु में दूसरी वस्तु का अभाव तो है नहीं । इस पर सांख्य राजी हो जाता है वह कहता है कि हमने सम्पूर्ण जगत् को प्रधानात्मक सिद्ध कर ही दिया है अत: "सर्व सर्वत्र विद्यते" सभी कुछ सब में पाया जाता है, इस सिद्धांत के अनुसार हमें अभावों को मानने की आवश्यकता ही नहीं है। 1 अनुमानम् । (दि० प्र०) 2 अशुद्धत्वम् । (दि० प्र०) 3 मूर्खवल्लभस्तथोक्तं विदग्धचूडामणौ पर्जन्ये राज्ञि गीर्वाणे व्यवहतरि । मूर्खे बाले जिगीषौ च देवोक्तिर्न रकुष्टिनीति । (दि० प्र०) 4 यतः। (दि० प्र०) 5 का। (दि० प्र०) 6 शब्दार्थभूतस्यानादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितस्य क्रमाद्वचस्तसमस्तापेक्षया भावस्याभावस्य भावोभावो भावस्य च प्रतीतेः परमार्थतो ह्यभाव एव विषय इति सौगतेनाभ्युपगम्यमानत्वादिति भावः । (दि० प्र०) 7 भाष्यं भावयन्तः प्राहः सोयमिति । (दि० प्र०) 8 कल्पितः सन् धर्म: शब्दस्यार्थो भवतीति । (दि. ३०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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