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________________ अत्यन्ताभाव की सिद्धि । प्रथम परिच्छेद [ २२१ । बौद्धो वक्ति यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां अभावो न गाते इत्युच्यमाने सति तं बौद्ध अस्वस्थं ___कथयन्तः तस्य चिकित्सां कुर्वन्त्याचार्याः ] कथं पुनरभावप्रतिपत्तिः ? कथं च न स्यात् ? सर्वथा भावविलक्षणस्याभावस्य वास्तवस्य ग्राहकप्रमाणाभावात्, प्रत्यक्षस्य रूपादिस्वलक्षणविषयत्वादभावे प्रवृत्त्ययोगात् तस्य तत्कारणत्वविरोधात्', तत्कारणत्वे स्वलक्षणतापत्तेः, अकारणस्याविषयत्वव्यवस्थितेः', ' बौद्ध का कहना है कि प्रत्यक्ष और अनुमान ये दोनों प्रमाण अभाव को नहीं ग्रहण कर सकते हैं। इस पर जैनाचार्य उस बौद्ध को अस्वस्थ बतलाते हये उसकी चिकित्सा करते हैं। बौद्ध–अभाव का ज्ञान पुन: कैसे होगा ? जैन-आप ही यह बतलाइये कि अभाव का ज्ञान कैसे नहीं होगा ? बौद्ध-सर्वथा भाव से विलक्षण जो अभाव है, वह वास्तविक है, इस प्रकार से ग्रहण करने वाले प्रमाण का अभाव है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण तो रूपादि स्वलक्षण को ही विषय करता है। अतएव अभाव को ग्रहण करने में उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि निर्विकल्प प्रत्यक्ष को उस अभाव के कारणत्व का विरोध है । यदि उस अभाव को भी प्रत्यक्ष के प्रति कारण मानों तब तो उस अभाव को भी स्वलक्षणरूप होने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष के लिये अकारणरूप अभाव तो प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, अविषय ही है यह व्यवस्था बनी हुई है। अर्थात् हम बौद्धों का कथन है कि "नाकारणं विषयः" जो ज्ञान के उत्पन्न होने में कारण होता है वही पदार्थ ज्ञान का विषय होता है, जो ज्ञान की उत्पत्ति में कारण नहीं है, वह विषय भी नहीं है, तथा प्रमाणान्तर-अनुमान भी अपने कारण को ही विषय करता है, क्योंकि अभाव तो अनुमान का भी कारण नहीं है। अर्थात्-अग्निरूप स्वलक्षण से धमरूप स्वलक्षण उत्पन्न होता है । पुनः धूम का दर्शन होता है फिर उससे धूम का विकल्प होता है। पश्चात् धूम से अग्नि का अनुमान होता है। इस प्रकार को परम्परा से स्वकारण ही विषय है । मतलब हम 1 आह सौ० हे स्याद्वादिन् ! तवाभावनिश्चयः कथं स्या०हे सौ. अस्माकमभावप्रतिपत्तिः कथं न स्यादपितु स्यादेव । सौ० आह हे स्या० एवं न । कुत: भावविलक्षणस्य सर्वथाऽभावस्य ग्राहकप्रमाणं नास्ति यतः । न तावत्प्रत्यक्षं रूपादिजातस्य प्रत्यक्षस्य रूपाद्यर्थः विषयस्तस्याभावे प्रवृत्तेरघटनात् = तथा प्रमाणान्तरमनुमानादिकं च सर्वथाऽभावग्राहक न। तस्यापि स्वकारणगोचरत्वात् । अनुमानं त्रिविधं कार्यानुमानं स्वभावानुमानमनुपलब्ध्यनुमानञ्च । तस्य प्रमाणान्तरस्य कार्यानुमानत्वे सति अभावस्य कारणत्वमायाति असौ कारणत्वप्रसक्तिः योग्यान् = तस्य स्वभावानुमानत्वेऽभावस्य भावात्मकत्वमायाति = तर्हि अभावग्राहिकाऽनुपलब्धिर्भविष्यति सापि न। कुतस्तस्या अनुपलब्धेः सदग्ग्राहित्ववृत्त्या वस्तूनिश्चयात् । तस्या तस्या सर्वथाऽभावस्याविषयत्वं सिद्धचति यतः । (दि० प्र०) 2 परमाणः । (दि० प्र०) 3 अकारणत्वं कुत इत्याशंक्य द्वितीयं हेतुं योजयेत् । (दि० प्र०) 4 स्वलक्षणस्यैव प्रत्यक्षज्ञानजननसामर्थ्यसिद्धेः । (दि० प्र०) 5 च । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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