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अष्टसहस्री
[ कारिका ११
में भी दर्शन से ज्ञान गुण का अस्तित्व भिन्न है चारित्र से वीर्य का अस्तित्व एवं सुख से सम्यक्त्व का अस्तित्व भी भिन्न है, भले ही इन गुणों का आश्रयभूत द्रव्य एक है, अतः प्रदेशभेद नहीं है फिर भी सभी गुणों का एवं पर्यायों का अस्तित्व पृथक्-पृथक् ही है। यदि नहीं मानोगे तो उन-उन गुणों का अभाव हो जावेगा अथवा सभी गुण और पर्यायों का संकर भी हो जावेगा। पुद्गल द्रव्य में भी हरे से पीला गुण एवं रूप से रस, स्पर्श और गंधगुण परस्पर में भिन्न-भिन्न ही हैं । अपक्वावस्था से पक्वावस्थारूप पर्यायें भी भिन्न-भिन्न ही हैं, यह सब इतरेतराभाव का ही प्रभाव है, जो कि अनंत गुण
और अनंत पर्यायों के अस्तित्व को बता देता है। संकर-मिश्रण नहीं होने देता है। इसलिये पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से इतरेतराभाव को स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है, यदि इसका लोप करोगे तो सभी वस्तुएँ सर्वात्मकरूप हो जावेंगी।
इतरेतराभाव का सारांश
हे भगवन् ! यदि अन्यापोह (इतरेतराभाव) का लोप किया जावे तो सभी वस्तु सर्वात्मक एकरूप हो जाती हैं एवं अत्यंताभाव का लोप करने पर आत्मा, प्रधान आदिरूप हो जावेगा, पुनः सभी का इष्ट तत्त्व सर्वथा कहा ही नहीं जा सकेगा, क्योंकि एक में दूसरे का अत्यंत अभाव न होने से अपने इष्ट और अनिष्ट तत्त्वों में तीन काल में भी भेद नहीं हो सकेगा, कारण स्वभावांतर से स्वभाव ध्यावत्ति ही अन्यापोह है, जैसे वर्तमान में पट स्वभाव में घट का अभाव । अतएव अपने स्वभाव से व्यावृत्ति होना अन्यापोह नहीं है, अन्यथा घटादिवस्तु स्वभाव शून्य हो जावेंगी।
यदि कोई कहे कि प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव में अन्यापोह है सो ठीक नहीं है, क्योंकि जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होवे वह प्रागभाव है जिसके होने पर नियम से कार्य का विनाश
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