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________________ २१२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ कहने का तात्पर्य है कि इसी प्रकार से इस "सत्ता महाराजाधिराज" के एक छत्र, सर्वव्यापी, महासाम्राज्य को देखकर ही कुछ सत्ताद्वैतवादी, एक अपना अलग ही सिद्धांत गढ़ बैठे हैं, क्योंकि यह बात तो निश्चित ही है कि इस सत्ताप्रभू की आज्ञा को उलंघन करने की स्वप्न में भी किसी की ताकत नहीं है न सिद्ध परमेष्ठी में है न केवलज्ञान में है न हरि हर ब्रह्मा आदि में है। हाँ ! जो इस सत्ता के शासन को स्वीकार करने में जरा भी आना-कानी करते हैं उन्हें असत् के कारावास में डाल दिया जाता है। जो स्वयं ही उसका जड़मूल से अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और तो क्या ? उसके वंशजों का, संबंधी वर्गों का इष्टमित्र कुटम्बियों का भी नाम निशान नहीं मिलता है सभी का नाश हो जाता है। जैसे बंध्या का पुत्र आकाश के फूलों की माला पहनकर खरगोश के सींग का धनुष बाण लेकर आकाश सरोवर के गगन पर नाचती हुई बंध्या की पुत्री के नेत्र का वेधन करना चाहता है यह सब कथन जैसे असत्रूप होने से अभावरूप है, निरर्थक है, बकवासरूप है, क्योंकि इन सभी बातों का जड़मूल से ही अभाव है तथैव सत्ता के शासन से बहिर्भूत की बड़ी दुर्दशा हो जाती है। युगानुयुग तक उसका अस्तित्व सुनने में नहीं आता है अर्थात् त्रिकाल में ही उसका विनाश-अभाव हो जाता है । अतः इस जगत में एक सत्ताद्वैतवादी भी हैं जो अपने को ब्रह्माद्वैतवादी भी कहते हैं तथा इस जगत् को मात्र सत्स्व रूप ही स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि जो यह सत्रूप जगत् है, वह एक ब्रह्मरूप ही है सभी चराचर पदार्थ इस ब्रह्म की ही पर्यायें हैं जो कि अविद्या-मिथ्यात्व के संस्कार से अनेक चेतन-अचेतन रूप दिख रही हैं यह भेद प्रतिभास अविद्यादेवी का विलास है । जगत् तो अभेदरूप परमब्रह्मरूप ही है इत्यादि । उसका विस्तृत वर्णन स्वयं स्वामीजी ने दूसरी अध्याय में किया है और उनका खंडन करके भी उन्हें भी उसी अविद्यादेवी की गोद में सोते हुये को अच्छी तरह से प्रबुद्ध करके जगा दिया है। तात्पर्य यह है कि सभी वस्तु भगवान् सिद्ध परमेष्ठी केवलज्ञान और लोकालोक सत्रूप हैं, विद्यमानरूप हैं बस ! इतना ही अर्थ लेना चाहिये, आप भी इसके शासन में रहकर इसे भगवान् मानकर इसकी पूजा नहीं करना। देखो भाई ! जगत् में एक ज्ञान नाम का पदार्थ इतना उत्तम है कि जो इस सत्ता पर भी अपना शासन जमा देता है। क्या ज्ञान के बिना आप या हम इस अस्तित्व गुण की कीमत कर सकते हैं ? क्या ज्ञान के बिना हम और आप इसका महत्त्व समझ सकते हैं या दूसरों को समझा सकते हैं ? अतः ज्ञान के द्वारा ही इस सत्तामहाराज का अस्तित्व सूचित किया जाता है। सभी चेतन-अचेतन वस्तओं को सतरूप सिद्ध करने का, उन्हें जानने, समझने का सौभाग्य ज्ञान को ही प्राप्त है, अत: यह ज्ञान महाप्रभु है और सत्ताकुमार इसके महामंत्री पद पर स्थित हैं। ऐसा मानना बहुत ही सुन्दर है । अब यह ज्ञानगुण आत्मा का स्वभाव है। इस ज्ञान को आश्रय देने वाली हमारी और आपकी आत्मा तो सबसे भी महान् सिद्ध हो गई है, अतः इस चैतन्यगुण से विशिष्ट-ज्ञानदर्शन गुण से सहित आत्मा के स्वरूप को समझो उसे सत्ता से एवं ज्ञान से भी महान् पूज्य समझो उसके स्वरूप को प्राप्त करके महान् बनने का प्रयत्न करो यह सबसे उत्तम है। यह आत्मा ही ज्ञानगुण के द्वारा सभी को एवं सत्ता को जानने वाली है। केवलज्ञानगुण भी इसी के आश्रित है, ऐसा समझो क्योंकि आत्मा में अनंतगुण हैं किन्तु ज्ञानगुण ही ऐसा है कि जिसके द्वारा आत्मा अपने अनंतगुणों का महत्त्व समझती है। उनका अनुभव करके सुखी होती है और विश्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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