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२०० ] अष्टसहस्री
[ कारिका ११ [ अर्थपर्यायापेक्षयोत्पादव्ययध्रौव्यात्मिकासु तिसृसु अवस्थासु हेतुव्यापारो नास्ति ] स्वयमुत्पित्सोरपि' स्वभावान्तरापेक्षणे विनश्वरस्यापि तदपेक्षणप्रसङ्गात् । एतेन स्थास्नोः स्वभावान्तरानपेक्षणमुक्तं, विश्रसा परिणामिनः कारणान्तरानपेक्षीत्पादादित्रय
[ अर्थपर्याय की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों ही अवस्थाओं
में कारणों का व्यापार नहीं होता है ] जो स्वयं उत्पित्सु है, उसमें भी यदि स्वभावांतर की अपेक्षा मानोगे, तब तो विनश्वर में भी उस स्वभावांतर की अपेक्षा का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा, किन्तु अर्थपर्याय की अपेक्षा से स्वयं उत्पित्सु और विनश्वर में स्वभावांतर की अपेक्षा नहीं है। इसी कथन से स्थान में भी स्वभाव अपेक्षा नहीं है, ऐसा कथन समझना चाहिये, क्योंकि स्वभाव से ही परिणमनशील द्रव्य में कारणांतर की अपेक्षा न करके ही उत्पाद आदि तीनों की व्यवस्था मानी गई है, क्योंकि विशेष व्यंजनपर्याय में ही कारणव्यापार की अपेक्षा स्वीकार की गई है । क्योंकि इस प्रकार से कारणांतर की अपेक्षा न करके ही पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से प्रतिक्षण में अनंतपर्यायात्मक क्रमेण अविच्छिन्न अन्वयसंततिरूप ही अर्थ-पदार्थ प्रतीति में आ रहा है।
विशेषार्थ-जैनसिद्धांत में प्रत्येक वस्तु सत्रूप है और सत् का लक्षण "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" अतः एक पर्याय का विनाश दूसरी पर्याय का उत्पाद एवं मूल अपने वस्तुस्वभाव का ध्रौव्य ये तीनों अवस्थायें एक साथ ही होती हैं । सूक्ष्मऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से इसको अर्थपर्याय भी कहते हैं। ये अर्थपर्याय स्वभावपर्याय भी कहलाती हैं ये आगमगम्य हैं क्योंकि हम लोग एकक्षण को और उस एकक्षण के परिणमन को बुद्धि से ग्रहण ही नहीं कर सकते हैं । समय अत्यंतसूक्ष्म है एक 'अं' शब्द के उच्चारणकाल में असंख्यात समय हो जाते हैं।
अर्थपर्याय में होने वाला यह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भिन्न-भिन्न बाह्यकारणों की अपेक्षा नहीं रखता है क्योंकि व्यंजन पर्याय में ही कदाचित् बाह्यकारणों की अपेक्षा रहती है । अतएव अर्थपर्यायरूप से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तो सिद्धों में भी पाया जाता है वहाँ भी शुद्धात्मा में प्रतिक्षण षट्गुण हानि वृद्धि रूप से उत्पाद, व्यय, प्रौव्य होता ही रहता है । सुमेरुपर्वत अनादि-अनिधन है और पौद्गलिक है उसमें भी प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हो रहा है । अकृत्रिम चैत्यालयों में, उनमें स्थित अकृत्रिम प्रतिमाओं में और अनादिनिधन वहाँ की ध्वजा, माला, तोरणद्वारों में भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हो रहा है । बालक पाँच वर्ष का हुआ एकदम नहीं बढ़ा है। एक-एक महीने से तो क्या एक-एक दिन से भी वृद्धि हुई है, किन्तु दिन प्रतिदिन की वृद्धि तो दिखती नहीं है और तो क्या घन्टे-घन्टे में भी बालक बढ़ता रहा है। अधिक और सूक्ष्मता से विचारें तो एक-एक समय से भी वृद्धि हो रही है, अगले क्षण की वृद्धिरूप उत्पाद पूर्वक्षण का विनाश और दोनों अवस्थाओं में ध्रौव्यरूप आत्मा का निवास रहना, बस इसी का नाम उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है। अंकुर अवस्था का उत्पाद बीज अवस्था
1 द्रव्यस्य । (दि० प्र०) 2 कारणान्तरम् । (दि० प्र०) 3 पदार्थस्य । परस्यानिष्टापादनव्याजेन विनाशस्यापि स्वभावान्तरानपेक्षणमुक्तं प्रतिपत्तव्यम् । (दि० प्र०) 4 व्यञ्जनपर्यायरूपेण । (दि० प्र०) 5 यसः । (ब्या० प्र०)
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