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________________ १६८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ प्रतिक्षणमनन्तपर्यायाः प्रत्येकमर्थसार्थाः, न पुनरेकस्वभावा एव भावाः क्षणमात्रस्थितयः, अन्वयस्यानारतमविच्छेदात् । क्रमशोपि विच्छेदेर्थक्रियानुपपत्तेः स्वयमसतस्तत्त्वतः 'क्वचिदुपकारितानुपपत्तेः कुतः कस्यात्मलाभः स्यात् ? कथञ्चिदविच्छेदे पुनः स सुघट श्री विद्यानन्दस्वामी ने स्वीकार करके उनका उदाहरण सहित विवेचन कर ही दिया है। कार्यकारणभाव भी कहीं पर सहभावी भी देखे जाते हैं जैसे दीप और प्रकाश । दीपक का जलना कारण है और प्रकाश होना कार्य है इनमें समय भेद नहीं है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भी कारण-कार्यभेद होकर भी समयभेद नहीं है अतः कार्य-कारण चाहे क्रमभावी हों चाहे सहभावी हों उनके अन्वयव्यतिरेक को देखकर ही कार्य-कारण सम्बन्ध समझ लेना चाहिये "जिसके होने पर जो नियम से होवे और जिसके अभाव में जो न होवे" वही तो कारण-कार्य का अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है । अतः प्रत्यक्ष सिद्ध संबंध के सद्भाव को मानना ही उचित है । यौग ने तो संबंध के दो भेद किये हैं एक समवायसंबंध दूसरा संयोगसंबंध वे अयुत सिद्ध--अपृथसिद्ध पदार्थ में समवायसंबंध मानते हैं जैसे कि जीवगुणी में ज्ञानगुण का समवाय से संबंध होता है । एवं पृथक्भूतयुतसिद्ध पदार्थों में संयोगसंबंध मानते हैं जैसे कुंड में दही का संयोगसंबंध हुआ है । जैनाचार्यों ने इस विषय पर बहुत ही सुंदर समाधान किया है इनका कहना है कि जो स्वयं अपृथसिद्ध हैं उनमें पृथक् से समवायसंबंध मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं है वह तो अनादिनिधन स्वयं ही तादात्म्य संबंध से युक्त हैं जैसे अग्नि में उष्णता, दूध में सफेदी, जीव में ज्ञान और पुद्गल में मूर्तिकपना आदि स्वभाव से ही अनादिकाल से विद्यमान हैं और अनंतकाल तक रहेंगे ये प्थक्संबंध से नहीं हैं अतः इनमें समवाय को मानकर तादात्म्य को ही तुमने समवाय नाम धर दिया है । हम इसे द्रव्यप्रत्यासत्ति, भावप्रत्यासत्ति संबंध आदिरूप से भी कहते हैं। तथा संयोगसंबंध तो पृथक्-पृथक् दो वस्तुओं का स्पष्ट ही है उसमें तो किसी प्रकार का विसंवाद है ही नहीं। एक बेचारा बौद्ध ही दुर्बुद्धि से बुद्धिहीन होकर के प्रत्यक्षप्रतीत संबंध का लोप करना चाहता है, किंतु जैनाचार्यों ने अच्छो प्रकार से संबंध का सद्भाव सिद्ध कर दिया है क्योंकि यदि बौद्ध के साथ उसके बुद्धभगवान् के धर्म का संबंध न हो तो वह बौद्ध भी नहीं कहलावेगा। “बुद्धो देवो अस्येति बौद्धः" बुद्ध भगवान् हैं देवता जिसके वह बौद्ध कहलाता है । अतः संबंध को न मानने पर भी वह गले में आ ही जाता है। पिता-पुत्र के संबंध, भाई-भाई के संबंध, पति-पत्नी के संबंध भी तो लोक व्यवहार में प्रसिद्ध ही हैं। इस प्रकार से प्रत्येक पदार्थों का समूह प्रतिक्षण में अनंत पर्यायात्मक ही है। न कि पुनः वे पदार्थ एक स्वभाव वाले और क्षणमात्रस्थिति वाले (क्षणभंगुर) ही हैं, क्योंकि कभी भी अन्वय का विच्छेद नहीं पाया जाता है। 1 द्रव्यस्य । (दि० प्र०) 2 अविनाशात् । (दि० प्र०) 3 अन्वयस्येति सम्बन्धः। (दि० प्र०) 4 स्वभावमसंतत्त्वतः इति पा० । (ब्या० प्र०) 5 कार्यम् । (ब्या० प्र०) 6 ततश्च । (ब्या० प्र०) 7 कारणात् । (ब्या० प्र०) 8 कार्यस्य । (ब्या० प्र०) 9 अन्वयः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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