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________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १६५ वचनात्, संवृत्त्या पारतन्त्र्योपगमेपि तदोषानतिवृत्तेः संवृत्तेमषारूपत्वात् । तत्त्वतोपि क्वचित्पारतन्त्र्येष्टौ सिद्धस्तात्त्विकः संबन्धः । इति न तत्प्रतिक्षेपः श्रेयान् यतः संबन्ध्यन्त काल सम्बन्ध को तो स्पष्टतया ही जाना जा सकता है। मृत्पिडरूप कारण और घटरूप कार्य का यदि कारण-कार्य सम्बन्ध न माना जावे तब तो मृत्पिड के बिना भी घड़े बनने लगेंगे और बीज के बिना धान्य की उत्पत्ति हो जावेगी, किन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता है । भाव प्रत्यासत्ति को भी देखिये ! धूम और अग्नि के सम्बन्ध का जो व्याप्तिज्ञान है उसे न मानने पर धूम से अग्नि का ज्ञान असम्भव हो जावेगा। और तो क्या संवेदनाद्वैत में भी ज्ञान का ज्ञेयाकार के साथ सम्बन्ध मानना ही पड़ेगा अतः ज्ञान भी ज्ञेयाकार से पराश्रित ही है । तथा यदि ज्ञान में ज्ञेयाकार को नहीं मानकर निराकार मानोगे तो भी "ज्ञान में ज्ञेयाकार का अभाव है" इस प्रकार के अभाव से तो ज्ञान परतन्त्र हो ही जावेगा। और तो क्या आप कहाँ तक सम्बन्ध को समाप्त करंगे । देखिये ! यदि सम्बन्ध के अभाव को आप सद्भावरूप पदार्थ के आश्रित नहीं मानोंगे तो वह सम्बन्ध का अभाव भी स्वयं ही वस्तु के आश्रय से रहित होकर स्वतन्त्ररूप से सिद्ध हो जावेगा और जब सम्बन्धाभाव एक स्वतन्त्र सिद्ध हो गया तो पुनः उसका अभाव नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार से अनेकों दोषों को दूर करने के लिये आपको सम्बन्ध स्वीकार करना ही पड़ेगा। हम जैनों के यहाँ सम्बन्ध कथञ्चित् दो सिद्धरूप दो में ही होता है जैसे जीव और पुद्गल के सम्बन्ध से संसारावस्था होती है । एवं कथञ्चित् असिद्ध में भी होता है जैसे मत्पिडरूप कारण से घटकार्य का कार्यकारण सम्बन्ध है। ये दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं और तो क्या सिद्धों में भी परतन्त्रता है क्योंकि अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से सिद्ध भगवान् भी पराश्रित होकर लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकते हैं, उन्हें वहीं अग्रभाग में ठहरना पड़ता है। वस्तु व्यवस्था ही ऐसी है । कोई भी इस परतन्त्रता को समाप्त नहीं कर सकते। गुरु शिष्य के आधीन हैं एवं शिष्य गुरु के परतन्त्र हैं, अन्यथा यदि दोनों ही स्वतन्त्र हो जावें तो गुरु-शिष्य सम्बन्ध न होने से यह गुरु है यह शिष्य है ऐसा सम्बन्ध ही समाप्त हो जावेगा। बौद्ध भी अपनी अज्ञान युक्त कुबुद्धि के आश्रित होने से परतन्त्र ही हैं ऐसा समझना चाहिये। पुनः वे स्वयं परतन्त्र होकर परतन्त्रता का लोप कैसे कर सकेंगे ? अर्थात् हठात् उन्हें परतन्त्रता को मानना ही पड़ेगा। यदि आप कहें कि सम्बन्ध वास्तविक नहीं है, किन्तु संवृति से ही हम सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं तब तो संवृति से ही परतन्त्रता को स्वीकार करने पर उन दोषों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि संवृति तो मृषारूप ही है। यदि कहीं पर तत्त्वतः कार्य में कारण की परतन्त्रता स्वीकार करेंगे तब तो सम्बन्ध तात्त्विक ही सिद्ध हो जाता है। इसीलिये आपका यह प्रतिक्षेप श्रेयस्कर नहीं है कि जिससे सम्बन्ध्यन्तर 1 पूर्वोक्तः । (ब्या० प्र०) 2 पुनराह सौगतः । अस्मन्मते कल्पनया संबन्धोस्ति इति चेत् । स्या० हे सौगत ! सा संवृत्ति: मृषारूपा सत्यरूपा वेति विकल्पः। मृषारूपा चेत्तदा तया साधितः संबन्धोपि मृषा। सत्यरूपा चेत्तदा तया साधितः संबन्धोपि सत्य इति संबन्धनिराकरणं श्रेयस्करं न सौगतस्य । (दि० प्र०) 3 संबन्धः। (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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