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________________ १७६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० त्वात्, तस्य च' क्रमयोगपद्याभावेन, तत्र तद्विरोधात्, तस्यापि स्वाकारज्ञानाद्यर्थक्रियाव्यावर्तनेन, तस्य च निरुपाख्यत्वेन, सर्वथानर्थक्रियाकारिणः सकलवाग्विकल्पेभ्यो निष्क्रान्तत्वात् । स्यादाकूतं, 'वर्णानामानुपूर्व्यपौरुषेयीष्यते', तस्या एव प्राक्प्रध्वंसाभावानभ्युपगमात् । ततो नोपालम्भः' श्रेयानिति, तदप्ययुक्तं, वर्णव्यतिरेकानुपूर्व्यसंभवात् । कथञ्चित्क्रियमाणामपि' 10तदानुपूर्वीकल्पनां विस्तरेण प्रतिक्षेप्स्यामः, "वक्तर्य नाप्ते'' इत्यत्र12 तत्प्रतिक्षेपविस्तारवचनात् । तदिह पर्याप्तं, तत्प्रबन्धेन सर्वथा प्राक्प्रध्वंसाभावनिह्नवे यथानिगदितदूषणगणप्रसङ्गस्य परिहरणासंभवात् । झलकाना ज्ञान कराना आदि रूप अर्थक्रिया--घट के कहने पर 'घ, ट' दो वर्गों का एवं उस घट के आकार वस्तु का तथा उसकी अर्थक्रिया-जलधारणआदि ज्ञानरूप अर्थक्रिया नहीं बनेगी। एवं अर्थक्रिया के न होने से वे शब्द स्वभाव से शून्य हो जावेंगे, पुनः किन्हीं वचनों के द्वारा उनका अस्तित्व ही नहीं कहा जा सकेगा। मीमांसक-वर्णों की जो आनुपूर्वी—क्रम परम्परा है, वह अपौरुषेयी-अनादिनिधन नित्य है और उसमें ही हमने प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव नहीं माना है, इसलिये आपका यह उपालम्भ श्रेयस्कर नहीं है। जैन-यह कथन भी अयुक्त ही है, क्योंकि वर्णों को छोड़कर कोई आनुपूर्वी सम्भव ही नहीं है। यदि आप कथंचित-किसी प्रकार से की गई, उस आनुपूर्वी की कल्पना करें, तो हम उसक आगे खण्डन करेंगे। "वक्तर्यनाप्ते" इस ७८वीं कारिका के अर्थ में विस्तार से खप अतः अब यहाँ इतना ही कथन पर्याप्त है, इसलिये शब्द के नित्यत्व का खण्डन करते हुये यह सूचित किया जाता है कि सर्वथा प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव का निन्हव करने पर यथाकथित दोषों के समूह का प्रसंग दूर करना असम्भव है, ऐसा समझना चाहिये। 1 आशंक्याशक्य हेतवो योजनीयाः । (दि० प्र०) 2 कौटस्थ्ये । (दि० प्र०) 3 तत्रापि निरुपाख्यं कुतः । (दि० प्र०) 4 क्रमेणोच्चार्यमाणरचनाविशेषः । (ब्या० प्र०) 5 सम्प्रदायः गुरुपरिपाटी अस्माभिर्मीमांसकरपौरुषेयी प्रतिपाद्यते । (दि० प्र०) 6 प्राक्प्रध्वंसाभावप्रतिक्षेपे कृते शब्दस्य निरुपाख्यलक्षणः । (ब्या० प्र०) 7 स्याद्वादिप्रतिपादितः दोषारोप: श्रेयस्करो न स्यात् । (दि० प्र०) 8 केनचित्प्रकारेणानुपूर्वी कल्पत इत्याह । (दि० प्र०) 9 अविचारितरमणीयतया वर्णेभ्यः पृथकत्वेन । (दि० प्र०) 10 वर्णानुपूर्वी । (दि० प्र०) 11 अपौरुषेयी । (दि० प्र०) 12 कारिकायाम् । (दि० प्र०) 13 सर्वपुस्तकेषु विस्तारवचनादिति लिखितमस्ति तद्ग्रन्थकर्तुविद्यानन्दस्यैव सम्प्रदायादागतम् तदसत् । विस्तरवचनादित्येव सम्यक । विस्तारो विग्रहो व्यास: स तु शब्दस्य विस्तर इत्यभिधानात् । ननु शब्द इति शब्दस्य विस्तर एवान्यस्य विस्तार इति चैन्न । तदानुपूर्वीकल्पनां विस्तरेण प्रतिक्षेप्स्याम इत्यनेन व्यभिचारात् । परमतात् प्रक्रियां नातिविस्तारामित्यनेन व्यभिचाराच्च नचात्र शब्दः पूर्वपदेस्त्यभिनववादि राजा। (दि० प्र०) 14 वर्णानुपूर्वीनिराकरणप्रपञ्चेन इह प्रस्तावे पूर्यताम् । (दि० प्र०) 15 का। (दि० प्र०) 16 प्रस्तावे । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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