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अतएव आचार्य विद्यानन्द महोदय ने यह श्लोक सार्थक ही दिया है - कि इसी एक ग्रन्थ से ही सभी स्वसमय और और परसमय का ज्ञान हो जाता है। इसका अष्टसहत्री यह महान सार्थक ही नाम है। इसमें ११४ कारिकाओं से श्री समन्तभद्राचार्यवयं ने देवागमस्तोत्र रचना की है उस स्तोत्र के ऊपर श्री भट्टाकलंकदेव ने अष्टशती नाम से ८०० श्लोक प्रमाण में टीका की है पुनः उस अष्टाशती सहित देवागम स्तोत्र की श्रीविद्यानंदि स्वामी ने ८००० आठ हजार श्लोक प्रमाण से अष्टसहली नाम की टीका की है इसका नाम आपने कष्टसहस्री भी दिया है। क्योंकि न्याय के प्रत्येक प्रकरण इसमें बहुत ही क्लिष्ट और जटिल हैं बड़े ही कष्ट साध्य हैं । तथा आपने इसे "अभीष्टसहस्री पुष्यात् " कहा है कि यह ग्रन्थ नित्य ही हजारों मनोरथों को पुष्ट करे । अतः इस अष्टसहस्री ग्रन्थराज का नित्य ही मनन करना चाहिये तथा देवागम स्रोत्र को भी नित्य ही पढ़ना चाहिये। इस स्तुति के प्रसाद से ही इसका अर्थ समझ सकेंगे ।
अष्टसहस्त्री का अनुवाद
चक्रवर्ती १०८ श्री शान्तिसागर जी महाराज के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का चातुर्मास सन् १९६९ वीर सं० २०२७ में जयपुर में मेंहदी वालों के चोक में हो रहा था। उस समय संघ में में अनेक मुनि आर्थिकाओं व ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों को अष्टसहस्री, राजवार्तिक आदि ग्रंथों का अध्ययन कराती थी ।
अष्टसहस्री ग्रन्थ के अध्ययन में मोतीचन्द भी थे। इन्होंने मेरी प्रेरणा से शास्त्री का फार्म सोलापुर परीक्षालय का भर दिया था और कलकत्ते का न्यायतीर्थ का फार्म भी भर दिया था । इतने क्लिष्ट अष्टसहस्री ग्रन्थ को पढ़ते समय वे प्रतिदिन कहते – माताजी ! मैं इसे मूल से पढ़कर परीक्षा नहीं दे पाऊँगा ।" मैंने तभी इस अष्टसहसी ग्रन्थका अनुवाद करना प्रारम्भ किया। मुझे उस समय पढ़ाने से भी ज्यादा लिखने में आनन्द आने लगा ।
कुछ पेजों का अनुवाद देखकर पं० इंद्रलाल जी शास्त्री पं० भंवरलाल जी न्यायतीर्थ, पं० गुलाबचन्द्र जैन दर्शनाचार्य, पं० सत्यंधर कुमार जी सेठी आदि विद्वानों ने प्रशंसा के साथ-साथ यह प्रार्थना शुरू कर दी कि माताजी ! इस ग्रन्थ का अनुवाद पूरा कर दीजिये यह आपके ही वश का काम है इत्यादि। यद्यपि मैं तो स्वयं अपनी रुचि से अनुवाद के कार्य में दत्तचित्त थी फिर भी विद्वानों की प्रेरणा भी सहायक थी। मैंने सन् १६७० में टोडाराय सिंह में पौष शुक्ला द्वादशी के दिन यह अनुवाद कार्य पूरा किया। अनन्तर मैंने इस ग्रन्थ के अनुवाद की दश कापियों से सार लेकर चौवन सारांश बनाये । मेरे इन सारांशों के आधार से विद्यार्थी मोतीचन्द, रवीन्द्रकुमार, कुमारी मालती माधुरी, त्रिशला कला ने शास्त्री की परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की थी।
दिल्ली में कई बार डॉ० पं० लाल बहादुर जी शास्त्री आदि ने मेरे से निवेदन किया कि माताजी ! आप इन सारांशों को अवश्य ही प्रकाशित करा दीजिये । इनके आधार से आज अनेक विद्यार्थी अष्टसहस्री ग्रंथ की परीक्षा दे सकेंगे। वे सभी सारांश इस अष्टसहस्री ग्रन्थ की हिन्दी टीका में यथास्थान जोड़े गये हैं जिससे यह अनुवादित हिन्दी टीका बहुत ही सरल बन गई है ।
इसका पहला भाग मात्र जिसमें छह कारिकायें ही थीं वह सन् १९७४ में छप चुका था। उस समय उसकी टीका का नामकरण नहीं किया गया था । पुनः मैंने “स्याद्वादचितामणि" ऐसा इसका सार्थक नाम दिया है । मुझे हर्ष है कि वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का इस अष्टसहस्री ग्रन्थ का प्रथम भाग प्रथम पुष्प था और आज सन् १९८८ में यह द्वितीय भाग अट्ठानवेंवां पुष्प बन रहा है। इस बीच में ग्रन्थमाला के द्वितीय पुष्प
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