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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १६५ मन्द्रतारश्रुतेः ' कस्यचिदेकत्वे न क्वचिदनेकत्वसिद्धि: । स एवायमकार इति प्रत्यवमर्शादकारादेरेकत्वेङ्गहारादिक्रियाविशेषस्याप्येकत्वमस्तु स एवायमङ्गहारादिरिति प्रत्यवमर्शात् । तथा सर्वस्यार्थविशेषस्यापि । न हि कथञ्चित्क्वचित्प्रत्यवमर्शो न स्याद्वर्णवत् । तच्छेषविशेष बुद्धेरभिव्यञ्जक हेतुत्वप्रक्लृप्तौ सर्वं समञ्जसं प्रेक्षामहे, सर्वस्याङ्गहारादेरपि देशादि - विशेष बुद्धेरभिव्यञ्जक हेतुत्वप्रक्लृप्तेः कर्तुं सुशकत्वात् । तदेतेषां पुद्गलानां करणसन्निपातोपनिपाते" श्रावणस्वभावः शब्दः पूर्वापरकोट्योरसन् प्रयत्नानन्तरीयको घटादिवदिति के सुनने पर भी शब्द एक-नित्य ही हैं, तब तो किसी वस्तु में भी अनेकत्व - अनित्यत्व सिद्ध ही नहीं हो सकेगा । शंका - " स एव अयमकारः " यह वही अकार है जिसे वहाँ देखा था इत्यादिरूप से अकारादि वर्णों का प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है अतः अकारादि वर्ण नित्य ही हैं । समाधान - तब तो अंगहारादि क्रिया विशेष में भी नित्यपना हो जावे क्योंकि "ये वही अंगविक्षेपादि हैं" ऐसा प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है और उसी प्रकार से सभी पदार्थों में भी एक- नित्यरूपता ही हो जावे, क्योंकि उनका भी प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है । कथंचित्-सत्रूप की अपेक्षा से किसी घट, पटादि का प्रत्यभिज्ञान वर्ण की तरह न हो, ऐसी बात भी नहीं है । उन वर्णों से शेष (अन्य भिन्न देश, स्वभावलक्षण) विशेषबुद्धि के अभिव्यञ्जकहेतु की कल्पना करने पर सभी समंजस ही हैं, ऐसा हम जैन समझते हैं । देशादि विशेषबुद्धि एवं अंगहारादि सभी में भी अभिव्यञ्जकहेतु की कल्पना का नियम किया जा सकता है । भावार्थ- जिन्होंने वर्णों को नित्य सिद्ध किया है, पुनः मंद, अमंद आदि ध्वनि के भेद में अभिव्यञ्जक हेतु दिया है। तथा नित्यत्व का समर्थन करने के लिये प्रत्यभिज्ञान हेतु दिया है, उनके यहाँ तो वर्ण के अतिरिक्त अन्य सभी अंग की विक्षेपण आदि क्रियाओं में और उनको ग्रहण करने वाली बुद्धि में भी प्रत्यभिज्ञान तो पाया ही जाता है, अतः उन्हें भी अभिव्यञ्जकहेतु के द्वारा नित्य माना जा सकता है, फिर तो अनित्य नाम की कोई चीज संसार में नहीं रहेगी । सब घट पट आदि पदार्थ भी अभिव्यञ्जकहेतु से प्रकट होते हैं, नित्य ही हैं, ऐसा मानते रहिये । तथा च यदि अंगहारादि क्रिया में इस एकत्व प्रत्यभिज्ञान को भ्रांत मानें तब तो अकारादि वर्णों में भी एकत्व प्रत्यवमर्श को भ्रांत ही कहना पड़ेगा और पुनः वर्णों में अनेकत्व सिद्ध कर देने से इन 1 शब्दस्य । मन्द्रस्तुगंभीरे तारोत्युच्चैस्त्रयस्त्रिवित्यमरः । शब्दस्य भिन्नदेशस्वभावश्रवणात् । (दि० प्र० ) 2 वर्णस्य । ( दि० प्र०) 3 अर्थे । ( दि० प्र० ) 4 कस्यचिदेकत्वे इति भाष्यांशविवरणमिदम् । भेद । ( दि० प्र० ) 5 यथा वर्णस्य तथा सर्वस्यांगहारादेः क्वचित्पर्याये कथञ्चित्प्रत्यभिज्ञानं मीमांसकस्य नहि । भवति चेत्तदा स्याद्वादप्रसंग: । ( दि० प्र० ) 6 स एवायमिति । ( दि० प्र० ) 7 शब्दवत् । शब्दपरतन्त्रः । ( ब्या० प्र० ) 8 ता । ( ब्या० प्र० ) 9 तात्वादि । ( व्या० प्र० ) 10 सान्निध्यम् । ( ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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