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________________ शब्द के नित्यत्त्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद मीमांसकस्य सांख्यमतानुसरणं युक्तं सर्वथा' शब्दस्य' प्रागभावानभ्युपगमेऽनादित्वप्रसङ्गात् पुरुषव्यापारानर्थक्यस्य समर्थनात् । [ १५१ [ मीमांसकाभिमतशब्दस्यावारकवायोर्निराकरणं ] तथा विनाशानभ्युपगमे तस्य किंकृतमश्रवणम् ? ' स्वावरणकृतमिति चेन्नैतत्सारं, तदात्मानमखण्डयतः ' कस्यचिदावरणत्वायोगात् । तिरोधायकस्य कस्यचिद्वायुविशेषस्थ लेते हैं किन्तु हम लोगों के पारिभाषिक नामों से डर जाते हैं । आप तिरोभाव को प्रागभाव कह दीजिये एवं आविर्भाव को उत्पाद कह दीजिये बाधा क्या है ? मीमांसकाभिमत शब्द की आवारक वायु का खण्डन J "उसी प्रकार से शब्द का विनाश स्वीकार न करने पर उस शब्द का अश्रवण = स्वभाव - सुनाई न देना, किसने किया ? अर्थात् किसके द्वारा रोका गया है ?" यदि आप कहें कि अपने-अपने आवरण ने किया, तो यह भी कथन सारभूत नहीं है [ क्योंकि हम ऐसा प्रश्न कर सकते हैं, कि वह अश्रवणरूपआवरण शब्द के श्रवणस्वरूप का खण्डन करता हुआ आवरण करता है कि खण्डन न करता हुआ ही आवरण करता है ? यदि आप कहें कि - 1 "वह शब्द का आवरण अपने शब्द के स्वरूप का खण्डन न करते हुये आवरण करता है तब तो किसी में भी आवरण नहीं हो सकता है ।" तिरोधायक - आवारक कोई वायु विशेष हैं, जो कि शब्द के स्वरूप का खण्डन करते हुये ही उसमें आवरण कर देती है, ऐसा मानने पर तो उसमें श्रावणत्व और अश्रावणत्वरूप से स्वभाव भेद का प्रसंग आ जाता है, क्योंकि “आवृत और अनावृत इन दोनों स्वभावों में अभेद नहीं हो सकता है । अथवा आवृत और अनावृत स्वभाव में यदि अभेद है, तो शब्द में श्रुति या अश्रुतिरूप एकान्त का प्रसंग आ जावेगा । अर्थात् या तो सभी शब्द सुनाई ही देंगे या सभी नहीं सुनाई देंगे।" 1 द्रव्यरूपेणेव पर्यायरूपेणापि । ( व्या० प्र० ) 2 यथा शब्दस्य प्रागभावानभ्युपगमेऽनादित्वं पुरुषव्यापारानर्थक्यञ्च प्रसजति तथा विनाशानभ्युपगमे शब्दस्यानाकर्ण न केन कृतम् । ( दि० प्र० ) 3 प्रध्वंसः । (ब्या० प्र०) 4 कि कृतमश्रावणं स्वावरणं कृतमिति पाठः । ( दि० प्र० ) 5 मी० केनचिद्वायुविशेषेण स्वावरणेन कृतमिति चेत् = स्या० मीमांसकस्य एतद्वयः सारं न । कुतः । आवरणं शब्दस्वरूपमभिदत् भिदद्वा प्रवर्त्तते इति विकल्पः । यदा शब्दात्मानं न खण्डयति तदा कस्यचिद्वायुविशेषस्यावारकत्वं न घटते । यदा तु शब्दात्मानं खण्डयति तदा आच्छदकस्य कस्यचिद्वायुविशेषस्यावारकत्त्वे सति शब्दस्य श्रवणलक्षण नित्यस्वभावो विनश्यतीति दूषणं स्यात् । कुतः आवृतानावृतस्वभावयोर्भेद एवोत्पद्यते यतः । मी० तयोरभेद एवेति चेत् । स्या० तयोरभेदे सति शब्दस्य सर्वथाश्रवणमेव प्रसज्येत् । अश्रवणमेव वा तदा पुरुषव्यापारात् प्राक् शब्दस्याश्रवणमिति भेदोनोपपद्यते । तथा नास्ति लोके । ( दि० प्र० ) 6 शब्दात्मानम् । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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