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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १४५ वन्तस्तस्योपकारास्तत्कृतास्ततो यदि भिन्नास्तदा तस्येति व्यपदेशोपि मा भूत्, संबन्धासिद्धेरनुपकारकत्वात् । तद्वतस्तैरुपकारैरुपकारान्तरेपि' स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्था । अवशेष रहा ही नहीं है। पुनः घट के लिये चाक का कोई उपयोग ही नहीं रहेगा और यदि कारणरूप चाक से उसका भ्रमणरूप व्यापार सर्वथा अभिन्न है ऐसा दूसरा पक्ष लेवोगे तब तो चाक और उसका भ्रमण ये दोनों एकमेक होकर एक ही हो जावेंगे पुनः चाकरूप कारण तो सदा विद्यमान है उसका भ्रमणरूप व्यापार भी सदैव विद्यमान ही रहेगा और घट भी सतत् बनते ही रहेंगे व्यवधान ही नहीं पड़ सकेगा । पुनः चाक से भ्रमण की अभिव्यक्ति होकर घट बना है यह कैसे कहा जा सकेगा ? यदि इन दोषों को दूर करने के लिये आप कहें कि चाक का भ्रमणरूप व्यापार तो प्रागभाव (पहले असत्) रूप है और वही किया जाता है किन्तु उस भ्रमणरूप व्यापार से अभिन्न व्यापारवान् जो कारणरूप चाक है वह नहीं किया जाता है। यह सब आपका मनगढंत सिद्धान्त ही है इसमें प्रमाण से सिद्धि की कोई गुंजाइश नहीं है। अर्थात् सांख्य चाक, दण्ड आदि से घट की अभिव्यक्ति तो मान लेता है चाक से उसके भ्रमणरूप व्यापार को उत्पन्न हुआ मानता है अभिव्यक्त नहीं मानता है अतएव आचार्यों ने दूषण दिया है । अतः आपके यहाँ तत्त्वों की सुघटित व्यवस्था न होने से सर्वत्र अनवस्था-देवी का साम्राज्य हो जाता है। एवं सांख्य के मतानुसार कोई भी व्यक्ति यदि कार्य को बनाता है-उत्पन्न करता है तब तो उस व्यक्ति से नये-नये कार्य बनते-बनते अनेकों लोकाकाशों का और अभूतपूर्व कार्यों का निर्माण होते-होते कहीं पर भी समाप्ति न होने से अनवस्था ही आती है। इसी भय से ही वे सांख्य अभिव्यक्ति पक्ष लेते हैं उनका कहना है कि सभी कार्य हमेशा कारणों में विद्यमान ही हैं मात्र छिपे हुये रहते हैं, नये उत्पन्न नहीं होते हैं, मात्र कारण कलापों से प्रगट हो जाया करते हैं अतः सभी कार्य कारणों से प्रकट ही होते हैं। हाँ! व्यापार तो अपने कारणों से उत्पन्न होता है न कि प्रकट । जैसे चाक से उसका भ्रमण उत्पन्न हुआ है न कि प्रकट । और पुनः "उन कारण व्यापारों में विशेषकांत-भेद एकांत के स्वीकार करने पर तद्वान् (चाक) अनुपयोगी हो जावेगा, क्योंकि उतने व्यापार (भ्रमण) मात्र से "इतिकर्तव्यता" हो जावेगो और सर्वथा यदि अभेद एकांत स्वीकार करोगे तब तो पूर्ववत् अभिव्यक्तिवान् का प्रसंग हो जावेगा तथा परिणाम में भी ये ही प्रश्न होते रहेंगे।" हम ऐसा प्रश्न कर सकते हैं कि परिणामी बहुधानक-प्रधान के जो परिणाम घटादिक हैं, वे उससे अत्यन्त भिन्न हैं या अभिन्न ? इत्यादि । और यदि आप कथंचितभेद का आश्रय लेंगे तब तो स्याद्वाद के अनुसरण का प्रसंग आ जावेगा और "वहाँ प्रधान से अभिन्न परिणामों की क्रमशः वृत्ति होना, मत होवे" क्योंकि आपके यहाँ परिणामी सदा सत्रूप है, अतः उसमें क्रम नहीं हो सकता है । अर्थात् प्रधान से परिणामों को सर्वथा अभिन्न मानने से सभी परिणाम घट पटादि कार्यों का क्रमशः वृत्ति होना नहीं हो सकता है, क्योंकि वह सदैव सत्रूप है। "और यदि आप कहें कि परिणामी से 1 परिणामविहिता: । (दि० प्र०) 2 परिणामिनः प्रधानस्य तै: तैः परिणामैरन्यानुपकारानाश्रित्योपकारः क्रियत इत्यङ्गी रे सांख्यानां स एव प्रश्नसम्बन्धः । (दि० प्र०) 3 उपकारान्तररिति पा० । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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