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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १४३ राणामभैदैकान्तेभिव्यक्तिवत्प्रसङ्गस्तद्वत' इव व्यापाराणां सर्वदा सद्भावः । तेषां प्रागभावे वा व्यापाराः प्रागसन्तः क्रियन्ते, न पुनस्तदव्यतिरेकिणोपि तद्वन्त' इति स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्रम् । एतेनावस्था' प्रत्युक्ता। तद्विशेषकान्ते तद्वतोनुपयोगः, तावतेतिकर्तव्यतास्थानात् । अभेदकान्ते पूर्ववत्प्रसङ्गः। परिणामप्येष पर्यनुयोगः। परिणामिनो बहुधानकस्य परिणामा घटादयोत्यन्तभिन्ना वा स्युरभिन्ना वा ? कथञ्चिभेदा है । अर्थात् कारककारण तो व्यापार आदि से कार्य को उत्पन्न करते हैं किन्तु व्यञ्जककारणों की उपस्थितिमात्र से ही कार्य हो जाता है, जैसे चक्रादिक के घूमने आदि व्यापार से घटरूप कार्य बनते हैं किन्तु व्यञ्जककारण दीपक आदि की सन्निधिमात्र से ही घटादि का प्रकाशनरूप कार्य हो जाता है । व्यञ्जककारण को कुछ व्यापार नहीं करना पड़ता है, क्योंकि उस कारक की सन्निधिमात्र से ही उस कार्य की सिद्धि होती है । अन्यथा व्यापाराभिव्यक्ति की सिद्धि होने से व्यञ्जक और कारक इन दोनों ही पक्ष में समानता का ही प्रसंग आ जावेगा । एवं ऐसा भी प्रश्न हो सकता है कि कारणव्यापार सर्वथा अपने कारणों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि एकांत से भिन्न ही स्वीकार करें, तब तो तद्वान्-व्यापारवान् कारण का कोई भी उपयोग नहीं होगा, क्योंकि उतने व्यापारमात्र से ही इतिकर्तव्यता हो जावेगी। "क्योंकि, व्यवहारी कारणों का अभिमतकार्य संपादन करना ही इतिकर्तव्यता है।" अर्थात् कार्य पूर्ण होने तक ही कारण माने जाते हैं, पश्चात् उन कारणों की इतिश्री-- समाप्ति हो जाती है। यदि उस इतिकर्तव्यता की स्थिति एकांततः कारण से भिन्नरूप व्यापारों से ही होवे, तब तो उस व्यापार वाले कारण के द्वारा अन्य साध्य क्या रहा कि जिससे उस व्यापारवान् कारण का कहीं पर उपयोग हो सके ? अर्थात् उसका कहीं भी उपयोग नहीं हो सकता है। ___ और यदि व्यापारवान व्यापारों से सर्वथा अभिन्न ही है, ऐसा पक्ष लेवो तब तो अभिव्यक्तिवान् का प्रसंग हो जावेगा, क्योंकि तद्वान् के समान व्यापारों का सर्वदा ही सदुभाव है। अथवा यदि सांख्य अतिप्रसंग दोष को दूर करने के लिये कहें कि हम उनका प्रागभाव मानते हैं, तब तो व्यापार तो प्रागभावरूप हैं और वे किये जाते हैं किन्तु तद्वान्-व्यापारवान् से अभिन्न जो कारण हैं वे नहीं किये जाते हैं। यह कथन तो केवल स्वरुचिविरचितदर्शन का प्रदर्शन करना मात्र ही है। इसी कारणव्यापार के निराकरणरूप कथन से ही आपकी अवस्था-व्यवस्था का खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये । पुनः अनवस्था का ही प्रसंग आता है। भावार्थ-मीमांसक वर्गों को नित्य एवं सर्वगत मानता है एवं उनकी अभिव्यक्ति का ही प्रागभाव मानता है जैनाचार्य इसी मान्यता को पुनरपि दूषित करते हैं। जैनाचार्यों ने कहा है कि सांख्यों ने भी कुंभकार के चक्र, दण्ड आदि से घट की उत्पत्ति नहीं मानी है प्रत्युत आविर्भाव-अभि 1 कारणस्य यथा । (ब्या० प्र०) 2 चक्रदण्डादिपदार्थाः । (ब्या० प्र०) 3 कारणस्य कार्यकारित्त्वम् । (ब्या० प्र०) 4 प्रधानात् । (ब्या प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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