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________________ १२८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० तुच्छ्योरेवाभावयोस्तद्भावविरोधात्' । तथा व्यवहारनयादेशान्मदादिद्रव्यं घटोत्तरकालवति घटाकारविकलं घटप्रध्वंसः । स 'चानन्तः समवतिष्ठते । तेन घटात् पूर्वकालवर्ति मृदादिद्रव्यं घटस्य प्रागभाव एव, न पुनः प्रध्वंसः, तथा घटाकारमपि तत्तस्य प्रध्वंसो मा भूत्, घटाकारविकलमिति विशेषणात् । नन्वेवं घटोत्तरकालवत्तिघटाकारविकलसन्तानान्तरमृदादिकमपि तद्घटप्रध्वंसः स्यादिति चेन्न, द्रव्यग्रहणात् । वर्तमानपर्यायाश्रयरूपमेव' उत्तर-तब तो हम आपसे भी प्रश्न करते हैं कि वह उपादान उपादेयरूपता भावों में कैसे होती है ? प्रश्न-जिसके होने पर ही जिसकी उत्पत्ति होती है वह उपादान है एवं दूसरा उत्पन्न होने वाला उपादेयरूप है। उत्तर-तब तो कारणस्वरूप पूर्वक्षणवर्ती प्रागभाव के होने पर कार्यात्मक प्रध्वंस की उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है, अतएव इन दोनों अभावों में उपादान-उपादेय भाव हो सकता है। क्या बाधा है ? किन्तु नैयायिक के द्वारा अभिमत् निःस्वभावरूप तुच्छाभाव में तो उपादान-उपादेयभाव का विरोध ही है। उसी प्रकार व्यवहार नय (द्रव्याथिक नय) की अपेक्षा से घट से उत्तरकालवर्ती एवं घटाकार से विकल जं घट का प्रध्वंस है और वह अनन्त है, यही व्यवस्था सूघटित है और 'च' शब्द से सादि भी है। इसीलिये घट से पूर्वकालवर्ती मृदादि द्रव्य घट का प्रागभाव ही है किन्तु प्रध्वंस नहीं है। इस प्रकार से घटाकार भी मृदादिद्रव्य उस घट का प्रध्वंस नहीं हो सकता है, क्योंकि "घटाकार विकल" यह विशेषण दिया गया है। शंका-यदि आपने इस प्रकार से प्रध्वंस का लक्षण स्वीकार किया है, तब तो घट के उत्तरकालवर्ती एवं घटाकार से रहित जो अनन्त अनेक भिन्न २ सन्तानरूप मृदादि द्रव्य हैं, जो कि घटाकाररूप से परिणत नहीं हैं, वह भी उस घट के प्रध्वंस हो जावेंगे। समाधान नहीं ! क्योंकि हमने द्रव्य को ग्रहण किया है। वर्तमान पर्याय का आश्रयरूप जो अन्वयी मृदादि द्रव्य है, वही उस पर्याय का द्रव्य माना गया है, न कि सन्तानान्तररूप मृदादिद्रव्य है, क्योंकि वह सन्तानान्तररूप मदादि द्रव्य अपनी भूत अथवा भावीपर्याय का ही अन्वयी है वह विव 1 तुच्छरूपयोरेव इति पा० । (दि० प्र०) उपादानोपादेयभावत्वं विरुद्धयते यतः । (दि० प्र०) 2 यथा ऋजुसूत्रनयार्पणादुपादेयक्षण एवोपादानस्य प्रध्वंसः । (दि० प्र०) 3 यत्सत्तद्रव्यं पर्यायो वा यद्रव्यं तज्जीवपुद्गलादिभेदेन षोढा । पुद्गलद्रव्यं द्विविधमणुस्कन्धभेदात् । तत्र स्कन्धद्रव्यं पृथिव्यादिभेदेनानेकधा। तत्र पृथिवी द्रव्यमपि मृदादि भेदेनानेकधा । इत्युल्लेखेन प्रवृत्ताद्वयवहारनयात् । (दि० प्र०) 4 यथा घटात्पूर्वकालवर्तिमृदादिद्रव्यं घटस्य प्रध्वंसो न स्यात् तथेत्त्यादि । (दि० प्र०) 5 अत्राह चार्वाकादिः । हे स्याद्वादिन् ! यदि भवदभिप्रायेण घटाकारविकलं घटप्रध्वंसः स्यात्तदा एवं च स्यात् । विवक्षितमृदादिप्रकारेण । (दि० प्र०) 6 द्रव्यस्य वर्तमान इति पा० । (दि० प्र०), प्रध्वंस्यमानपर्याय इति पा० । (ब्या० प्र०), यसः । (दि० प्र०) 7 घटस्य । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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