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________________ ११६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० स्वभावाः कालादिवत् ? भावतन्त्राश्चेत्किमुत्पन्नभावतन्त्रा उत्पत्स्यमानभावतन्त्रा वा ? न तावदादिविकल्पः, समुत्पन्नभावकाले 'तत्प्रागभावविनाशात् । द्वितीयविकल्पोपि न श्रेयान्, प्रागभावकाले स्वयमसतामुत्पत्स्यमानभावानां तदाश्रयत्वायोगात्, अन्यथा' प्रध्वंसाभावस्यापि प्रध्वस्तपदार्थाश्रयत्वापत्तेः । न चानुत्पन्नः प्रध्वस्तो 1°वार्थ: । कस्यचिदाश्रयो नाम, 12अतिप्रसङ्गात् । यदि पुनरेक एव प्रागभावो 14विशेषणभेदाद्भिन्न उपचर्यते घटस्य प्रागभावः पटादेर्वेति । तथोत्पन्नपदार्थविशेषणतया16 17तस्य विनाशेप्युत्पत्स्यमानार्थ विशेषणत्वेनाविनाशान्नित्यत्वमपीति मतं, तदा प्रागभावादिचतुष्टयकल्पनापि मा भूत्, सर्वत्रकस्यैवाभावस्य विशेषणभेदात्तथा20 भेदव्यवहारोपपत्तेः । कार्यस्यैव पूर्वेण कालेन विशिष्टोर्थः प्राग हो चुके पदार्थों के काल में ही तो प्रागभाव का विनाश हो चुका है अर्थात् प्रागभाव का विनाश होकर ही तो कार्य हआ है पूनः उत्पन्न हये पदार्थ के आश्रित वे प्रागभाव कैसे रहेंगे जब घट बना तो उसका प्रागभाव नष्ट हो जाने पर बना है पुनः वह प्रागभाव उत्पन्न हुये घट के आश्रित कैसे रहेगा? दूसरा विकल्प भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि प्रागभाव के काल में स्वयं असत्-अविद्यमानरूपउत्पन्न होने वाले पदार्थों का वह अभाव आश्रय कैसे लेगा ? अर्थात् स्वयं आत्मलाभ को प्राप्त हुआ अस्तिरूप पदार्थ ही किसी को आश्रय आदि दे सकेगा जैसे कि भित्ति के होने पर ही चित्र बनता है। अन्यथा यदि स्वयं अविद्यमानरूप पदार्थ भी उस अभाव को आश्रय देने लगें तब तो प्रध्वस्तनष्ट हुये पदार्थ भी प्रध्वंसाभाव को आश्रय देने लगेंगे किन्तु अनुत्पन्न अथवा प्रध्वस्त पदार्थ किसी को आश्रय देवें ऐसा देखने में नहीं आता है। यदि मानोगे तो अतिप्रसङ्ग दोष आ जावेगा। अर्थात् गधे के सींग आदि भी प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव को आश्रय प्रदान करने लगेंगे क्योंकि जैसे अनुत्पन्न एवं प्रध्वस्त पदार्थ असत्रूप हैं, वैसे ही गधे के सींग भी असत्रूप हैं। असत् रूप से दोनों समान ही हैं कोई अन्तर नहीं है एवं नहीं बने हुये अथवा नष्ट हो चुके खंभे भी महल आदि को आश्रय देने लगेंगे असत्रूप खम्भों से भी महल बन जावेगा। 1 बसः । (दि० प्र०) 2 यथा कालाकाशदिगादयः स्वतन्त्राः संतोभावस्वभावाः तथा प्रागभावाः कथनम् । (दि० प्र०) 3 तव मते सर्वदा भावविशेषणानामेवाभावत्वस्वीकारात्। 4 भावः । (दि० प्र०) 5 प्रागभावः । (दि० प्र०) 6 (स्वयमात्मलाभं प्राप्त एव पदार्थ: कस्यचिदाश्रयत्वादिधर्मविशिष्ट: स्यात्, सति कुड्ये चित्रमिति न्यायात्)। 7 (स्वयमसतोपि तदाश्रयत्वं चेत्)। 8 आशंक्य । (दि० प्र०) 9 नन्वेवमिष्टापादनमेवेत्युक्ते आह। 10 समुच्चयेत्र वा शब्दः । 11 प्रागभावस्य प्रध्वंसाभावस्य वा । (दि० प्र०) 12 खरविषाणादेरपि प्रागभावप्रध्वंसाभावाश्रयत्वानुषङ्गात्, उत्पन्नप्रध्वस्तयोरसत्त्वेन खरविषाणरूपस्याभावस्य समानत्वात् । किञ्चैवमनुत्पन्नः प्रध्वस्तो वा स्तम्भः प्रासादादेराश्रयः स्यात् । 13 चार्वाक आह -हे योग । 14 घटादि । (दि० प्र०) 15 (तथा चेत्यर्थः)। 16 तदोत्पन्नम् इति पा० । (दि० प्र०) भिन्नत्त्वप्रकारेण । बसः । (दि० प्र०) 17 प्रागभावस्य । (दि० प्र०) 18 बसः । (दि० प्र०) 19 अर्थे । सर्वत्र प्रागभावादिषु । (दि० प्र०) 20 (प्रागभावादेरेकत्वेपि विशेषणभेदाभेदोपचारप्रकारेण)। 21 अभावलक्षण । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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