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________________ प्रागभावसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ११३ स्थेति, 'तदप्ययुक्तं, परमार्थतः प्रागभावादीनां साङ्कर्यप्रसङ्गात् । न ह्युपचरितेनाभावेन परस्परमभावानां व्यतिरेक: सिध्येत्, सर्वत्र 'मुख्याभावपरिकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात् । यदप्युक्तं, न 10भावस्वभावः प्रागभावादिः, सर्वदा 11भावविशेषणत्वादिति,तदपि न सम्यगनुमानं, हेतोः 13पक्षाव्यापकत्वात्, 14न प्रागभावः प्रध्वंसादावित्यादेरभावविशेषणस्याप्यभावस्य प्रसिद्धः, गुणादिना व्यभिचाराच्च, 15तस्य सर्वदा 16भावविशेषणत्वेपि भावस्वभावत्वात् । भी भावस्वभावरूप हैं । अर्थात् गुण द्रव्य-पदार्थ के ही आश्रित रहते हैं अतः वे भी पदार्थ के विशेषण हैं फिर भी सत्प्रत्यय वाले हैं अभावरूप नहीं हैं और आपने अभाव को भी पदार्थ का ही विशेषण माना है अतः अभाव का लक्षण गुणों में चले जाने से व्यभिचार दोष आता है। योग-"रूपं पश्यामि" इत्यादि व्यवहार से गुण स्वतंत्र भी प्रतीति में आ रहे हैं अतः हमेशा वे गण भाव-पदार्थ के ही विशेषण हों ऐसा नहीं है। अर्थात् यौग ने गुण को भी याग ने गुण को भी एक स्वतंत्र पदार्थ स्वीकार किया है। उसके नव पदार्थों में गुण पदार्थ भी है। चार्वाक-यदि ऐसा कहो तब तो "अभावस्तत्त्वं" इस प्रकार से अभाव की भी स्वतन्त्ररूप से प्रतीति होने से वह अभाव भी हमेशा भाव-पदार्थ का विशेषण सिद्ध नहीं होगा। यदि आप कहें कि सामर्थ्य से ही उस अभाव विशेषण के विशेष्यरूप द्रव्यादिकों का संप्रत्यय-ज्ञान हो जाता है अतः सदा पदार्थ का विशेषणरूप ही अभाव सिद्ध है तब तो उसी प्रकार से गुणादि भी हमेशा ही पदार्थ के ही विशेषण होवें क्योंकि उन गुणों का विशेष्य जो द्रव्य है वह भी सामर्थ्य-अर्थापत्ति से ही जान लिया जावेगा अर्थात् गुणों का वर्णन करने पर वे किनके हैं ? ऐसा प्रश्न होते ही द्रव्य के हैं यह अर्थापत्ति स्वयं आ जाती है। भावार्थ-नैयायिक अभाव को सर्वथा तुच्छाभावरूप मानते हैं वे कहते हैं कि यह प्रागभाव मृत्पिण्ड "पहले घट नहीं था" यह ज्ञान अभाव विषयक है और सद्भावरूप ज्ञान से सर्वथा विपरीत है एवं यह प्रागभाव सत्रूप पदार्थों का विशेषण है इस मान्यता पर सर्वथा अभाव को न म चार्वाक ने ही मध्य में नैयायिक से प्रश्नोत्तर कर डाले हैं जैनाचार्य तो तटस्थता से सुन रहे हैं। चार्वाक ने कहा कि प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव में प्रागभाव नहीं है इस वाक्य में यह प्रागभाव सद्भावरूप पदार्थ का विशेषण न होकर अभाव का ही विशेषण बन जाता है तथा गुणादि से भी 1 स्याद्वादी। (दि० प्र०) 2 यत एवं ततोऽभावानामव्यवस्थितिर्न । कोर्थः व्यवस्थितिरेव उपचरितश्चासावभावश्चोपचरिताभावस्तेन । उपचरितेनाभावेन वा पाठः । (दि० प्र०) 3 चतुर्णाम् । 4 भेदः । (ब्या० प्र०) 5 अन्यथा । 6 घटादावभावेषु वा। 7 मुख्योऽभावोत्रेतरेतराभावः। 8 तथा सति घटपटादीनामैक्यं स्यात् । 9 योगेन । 10 बसः । (ब्या० प्र०) 11 ता । (ब्या० प्र०) 12 घटस्य प्रागभाव इत्येवंप्रकारेण । 13 भागासिद्धत्त्वादित्यर्थपक्षकदेशे वर्तमानोहेतु गासिद्ध इति योगैः स्वयमभिधानात् । अभावाभावस्य भावविशेषणत्त्वयोगात् । (ब्या० प्र०) 14 पक्षाव्यापकत्वं दर्शयति । 15 गुणादेः । (दि० प्र०) 16 घटस्य रूपमित्येवम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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