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________________ प्रागभावसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १११ त्पत्तिः पश्चादिव कथं निवार्येत ? न च गत्यन्तरमस्ति । 'ततो' 'न भावस्वभावः प्रागभावः, 'तस्य भावविलक्षणत्वात्पदार्थविशेषणत्वसिद्धेः ।' [ चार्वाको नैयायिकाभिमतं प्रागभावं खंडयति ] इत्यन्ये तेपि न समीचीनवाचः, सर्वथा10 11भावविलक्षणस्याभावस्य ग्राहकप्रमाणाभावात् । 'स्वोत्पत्ते:12 प्राग्नासीद् घट इति प्रत्ययोऽसद्विषयः, सत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् । यस्तु कौन रोक सकेगा ? क्योंकि इन दोनों विकल्पों के सिवाय और कोई गति नहीं है। इसलिये प्रागभाव भावस्वभाव नहीं है क्योंकि वह भाव से विलक्षण है और वह पदार्थ का विशेषण सिद्ध है। अर्थात् नैयायिक अभाव को भावरूप न मानकर उसे तुच्छाभावरूप मानते हैं और उसे भावरूप पदार्थों का विशेषण मानते हैं। [ चार्वाक के द्वारा नैयायिकाभिमत प्रागभाव का खण्डन ] चार्वाक-ऐसा कहनेवाले आप नैयायिक भी समीचीन विचारवाले नहीं हैं क्योंकि सर्वथा भाव से विलक्षण अभाव को ग्रहण करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है। नैयायिक-ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रागभाव को ग्रहण करने वाला अनुमान प्रमाण विद्यमान है। यथा-"अपनी उत्पत्ति से पहले घट नहीं है इस प्रकार का असत् को विषय करने वाला ज्ञान पाया जाता है क्योंकि वह असत् विषयक ज्ञान सत्प्रत्यय से विलक्षण है। जो सत् को विषय करने वाला है वह सत् प्रत्यय से विलक्षण नहीं है । जैसे “सद्रव्यं" इत्यादि का ज्ञान । और वह अभाव सत् प्रत्यय से विलक्षण है इसीलिये असत् को विषय करने वाला है।" चार्वाक -यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रागभावादि में प्रध्वंसाभावादि नहीं हैं इस प्रत्यय के साथ व्यभिचार दोष आता है । अर्थात् प्रागभाव आदि में प्रध्वंसाभाव आदि नहीं है इस प्रकार का ज्ञान प्रध्वंसाभाव के अभावरूप होने से सत् को विषय करने वाला है, फिर भी "सत्प्रत्यय से विलक्षण है" यहाँ पर यह हेतु है और यह हेतु सत्प्रत्यय से विलक्षण होने पर भी प्रागभावादि में असत् को विषय करने वाला नहीं है। यदि आप कहें कि वह भी असत्-अभाव को विषय करने वाला है इसलिये उपर्युक्त दोष नहीं है । यह भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि अभाव में अनवस्था का प्रसङ्ग प्राप्त हो जावेगा। 1 अभावस्य भावस्वभावत्वेङ्गी क्रियमाणेऽनेकदूषणप्रसङ्गो यतः । 2 यौगः । (दि० प्र०) 3 प्रागभावो न भावस्वभावो भावविलक्षणत्वात् । व्यतिरेके बुध्द्यादिवत् । 4 प्रागनन्तरपर्यायलक्षणम् । बसः । (दि० प्र०) 5 प्रागभावस्य । (दि० प्र०) 6 षट्पदार्थेभ्यो द्रव्यादिभ्यः । (दि० प्र०) 7 अभावस्य । 8 नैयायिकाः। 9 प्रमाणभावस्यासिद्धत्त्वायोगात् । (दि० प्र०) 10 उपादेयरूपेण चोपादानस्यापि । (दि० प्र०) 11 अत आह स्याद्वादी तेपि योगा: न सुन्दरगिरः । कुतः सर्वथापदार्थविरुद्धाऽभावग्राहकं प्रमाणमेव नास्ति लोके यतः । (दि० प्र०) 12 भावविलक्षणस्याभावस्य ग्राहकप्रमाणं दर्शयति योगः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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