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________________ जय पराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद [ १०३ जय पराजय व्यवस्था का सारांश एकांत की अनुपलब्धि अथवा अनेकांत की उपलब्धि ही अन्य मतों की कल्पना को समाप्त कर देती है ऐसा सुनकर बौद्ध कहता है कि अन्वय व्यतिरेक धर्म वाले हेतु में से किसी एक का ही प्रयोग उचित है क्योंकि दोनों का प्रतिपादन करना या प्रतिज्ञा निगमन आदि का प्रयोग करना तो वचनाधिक्य दोष होने से निग्रह स्थान नाम का दोष है । अत: वचनाधिक्य दोष से वादी पराजित हो जाता है एवं वचनाधिक्य रूप दोष का उद्भावन करने से प्रतिवादी की जय हो जाती है। इस पर जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि आप यथोक्त-सच्चे हेतु की सामर्थ्य से अपने पक्ष को सिद्ध करके वचनाधिक्य दोष से वादी का पराजय करते हैं या अपना पक्ष बिना सिद्ध किये ? यदि प्रथम पक्ष लेवें तब तो अपने पक्ष की सिद्धि से ही वादी का पराजय हुआ न कि वचनाधिक्य से । यदि आप दूसरा पक्ष लेवें कि प्रतिवादी अपने पक्ष को सिद्ध न करके वादी का पराजय करना चाहता है तब तो युगपत् वादी एवं प्रतिवादी का पराजय अथवा दोनों का ही जय हो जावेगा क्योंकि स्वपक्ष सिद्धि दोनों में नहीं है इत्यादि अनेक दोष आते हैं अतएव साधर्म्य, वैधर्म्य हेतु, प्रतिज्ञा, निगमन, उदाहरण आदि स्वपक्ष में बाधक नहीं हैं । वादी जब स्वपक्ष की सिद्धि करके पर पक्ष का निराकरण कर देता है तब उसकी जय एवं दूसरे की पराजय हो जाती है। अथवा जब प्रतिवादी परपक्ष का निराकरण करके स्वपक्ष की सिद्धि कर देता है तब उसकी जय एवं दूसरे की पराजय हो जाती है। अथवा प्रतिवादी जब परपक्ष का निराकरण करके स्वपक्ष की सिद्धि कर देता है तब उसकी जय, इतर की पराजय हो जाती है। अतः जय पराजय की व्यवस्था की सिद्धि असिद्धि पर ही अवलंबित है। उपसंहार--बौद्ध का कहना है कि जब अपने पक्ष के सिद्ध करने से ही अन्यमत का निराकरण है पनः पथक से अन्य के निराकरण की क्या आवश्यकता थी। आप अन्वय-व्यतिरेक दोनों बोलते हैं अतः वचन अधिक बोलने से निग्रह स्थान को प्राप्त हो गये हैं। इस पर जैनाचार्यों ने स्पष्ट कह दिया है कि स्वपक्ष की सिद्धि और असिद्धि पर ही जय-पराजय की व्यवस्था अवलंबित है, वचन अधिक बोलने से पराजय नहीं हो सकता है। हो एकांतवाद में पुण्य पापादि के अभाव का सारांश हे नाथ ! नित्य अथवा अनित्य आदि एकांत मान्यताओं के दुराग्रही स्वपरवरी मिथ्यादृष्टि जनों में किसी के यहाँ भी पुण्य पापादि क्रियायें एवं परलोकादि भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। * यह सारांश पृष्ठ ५६ पर आठवीं कारिका के पहले पढ़ना चाहिये । * यह सारांश पृष्ठ ७५ पर नवमीं कारिका से पहले पढ़ना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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