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________________ भावएकान्त का निरास ] प्रथम परिच्छेद [ ६७ वा निरुपाख्याभावानामिव', परमार्थतः क्षणिकत्वाक्षणिकत्वतदुभयानुभयरूपत्वादिविशेषसाधनेपि साधनव्यभिचारात्, सोपि' प्रतिभासकार्याद्यभेदेपि 'कस्यचिदेकत्वं 10साधयतीति साध्यसाधनयोरभेदे कि केन "कृतं स्यात् ? 13पक्षविपक्षादेरभावात् * । कस्यचिद्धि सन्मात्रदेहस्य परब्रह्मणस्तद्वादी 5 एकत्वं16 1"प्रतिभासनात्तत्कार्यात्तत्स्वभावाद्वा 18साधयेदन्यतो वा ? तच्च साधनं साध्यादभिन्नमेव, अन्यथा द्वैतप्रसङ्गात् । साध्यसाधनयोरभेदे च20 बौद्धों के द्वारा अभिमत विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप ये पांच स्कन्ध एवं नैयायिक के द्वारा स्वीकृत द्रव्यादि नवपदार्थ अथवा तुच्छाभावरूप अभावों में विशेषभेद की सिद्धि नहीं हो सकती है । तथैव परमार्थतः क्षणिकत्व, अक्षणिकत्व, नित्य, तदुभय-स्वतन्त्ररूप नित्यानित्य एवं अनुभय-दोनों से शून्यरूप तत्त्व में भी विशेषभेदों को सिद्ध करने के लिये जो भी हेतु प्रयुक्त किये जाते हैं वे व्यभिचारी ही हैं। जैन-इस प्रकार से जो सत्ताद्वैतवादी विशेषों-भेदों का अपन्हव-लोप करते हैं यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिभास और उसके कार्यादि में अभेद होने पर भी किसी ब्रह्मविशेष में यदि आप एकत्व को सिद्ध करते हैं, तब तो साध्य और साधन में भी अभेद रहा । पुनः किस हेतु से किस साध्य की सिद्धि आप कर सकेंगे ? क्योंकि सत्ताद्वैतवादी के मत में तो पक्ष, विपक्ष आदि का ही अभाव है। हम आपसे प्रश्न करते हैं कि किसी सत्तामात्र देहवाले परमब्रह्म के एकत्व को आप प्रतिभासमान हेतु से सिद्ध करते हो या तत्कार्य हेतु से अथवा तत्स्वभावहेतु से या अन्य किसी हेतु से ? अर्थात् आप सम्पूर्ण जगत के चेतनाचेतन पदार्थ को परमब्रह्म स्वरूप ही सिद्ध करना चाहते हो तब उस एक स्वरूप के सिद्ध करने में आप क्या हेतु देते हो ? (1) सब पदार्थ सत्रूप ही प्रतिभासित हो रहे हैं। अथवा (2) उस परमब्रह्म के कार्य हैं । या (3) उसके स्वभाव हैं । अथवा (4) अन्य किसी हेतु से उसके एकत्व को सिद्ध करते हो ? कहिये यदि आप इन हेतुओं से सिद्ध करते हो तब तो ये सभी हेतु साध्य (परमब्रह्म) से अभिन्न ही हैं। 1 यथा निरुपाख्याभावानां (नैयायिकाद्यभिमतानां) विशेषसाधनव्यभिचारः। 2 तदुभयं नैयायिकाभिमतम् । 3 तदनुभयं, शून्यवाद्यभिमतम् । 4 ते च ते विशेषाश्च तेषां साधनेपि। 5 सर्व वस्तुक्षणिक सत्त्वादित्यस्य हेतोः विपक्षे नित्येऽगतत्त्वं कथं सर्वमक्षणिक सत्त्वादित्यो तेन व्यभिचारित्त्वं द्वैतवादिना क्रियमाणकल्पनाया विपक्षेपि साधारणत्वात् । (ब्या० प्र०) 6 सोपि अद्वैतवादी प्रतिभासनात् कार्यात्तत्स्वभावादित्यादि साधनानामभेदेपि परमब्रह्मणः । एकत्त्वं साधयति । (दि० प्र०) 7 सत्ताद्वैतवादीत्यतः प्रभुत्याह जैनः । सोपि सत्ताद्वैतवादी। 8 (सत्ताद्वैतवाद्युक्तं परमतनिराकरणं स्वयमपि स्वीकृत्य जैनोधुना सत्ताद्वैतमतं दूषयति)। प्रतिभासश्च तत्कार्यादि च तयोरभेदे। 9 ब्रह्मणः। 10 हेतोः । (ब्या० प्र०) 11 साधितम् । 12 नैव । (ब्या० प्र०) 13 सत्ताद्वैतवादिमते । 14 च । (ब्या० प्र०) घटादिकार्याणां कारणभेदाभावात् । (दि० प्र०) 15 ब्रह्मवादी। 16 साध्यम् । (ब्या० प्र०) 17 घटादयोऽभिन्नाः, प्रतिभासकार्यत्वात् । 18 कारणभेदाभावादित्यादिहेतोर्वा । 19 भिन्नं चेत् । (दि० प्र०) 20 सिद्धे सति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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