SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ] प्रथम परिच्छेद [ ६५ स्येति चेन्न 'कार्यकाल' मप्राप्नुवतः कारणत्वानुपपत्ते श्चिरत रातीतवत् ' * 'कार्यकाल ' प्राप्नुवतोपि' 'कारणत्वादर्शनादन्यथा सर्वस्य 10 समानक्षणवत्तिनस्तत्कारणत्वप्रसङ्गात्" । यस्य भावाभावयोः कार्यस्य भावाभावौ तदेव कारणमिति "कल्पनायां, 14 सत्यभवत: 15 16 2 16 स्त्रयमेव नियमेन पश्चाद्भवतस्तत्कार्यत्वं विरुद्धं *, " तत्र तदकारणत्वसाधना दन्य" कार्यवत्”, जैन - ऐसा कथन ठीक नहीं है । पूर्वक्षणलक्षण कारण "कार्यकाल को प्राप्त न होता हुआ कारणरूप नहीं हो सकता है बहुत काल के बीते हुये कारण के समान ।" तथा कार्यकाल को प्राप्त करते हुये को भी कारणपना मानों तो दिखता नहीं है । जैसे गाय के दायें-बायें सींग में कार्य-कारणपता नहीं है क्योंकि एक साथ रहने वाले में कार्यकारणभाव संभव नहीं है, अन्यथा कार्यकाल को प्राप्त करते हुये सभी को अनियम से कारणरूप मान लेंगे तब तो सभी कारण कार्य के साथ समानक्षणवर्ती हैं अतः सभी कार्य भी कारणरूप हो जावेंगे । बौद्ध - जिसके होने एवं न होने पर कार्य का होना एवं न होना निश्चित हो उसे ही कारण कहते हैं इस प्रकार से हम सौगत की कल्पना है । जैन - पुनः कारणरूप से स्वीकृत जो “पूर्वक्षण है उसके होने पर उत्तरक्षण लक्षण कार्य तो नहीं होता है और स्वयमेव ( पूर्वक्षणरूप कारण के बिना ही) नियम से पश्चात् होता है तब तो उस कारण का वह कार्य है यह कथन विरुद्ध है", क्योंकि उत्तरक्षण लक्षण कार्य के लिये वह अकारण ही रहा अन्य कार्य के समान । अर्थात् पूर्वक्षण उत्तरक्षण के लिये कारण नहीं है क्योंकि उसके अभाव में भी उस उत्तरक्षण की उत्पत्ति देखी जाती है अथवा उस कार्य को उस कारण का अकार्यत्व सिद्ध है। अन्य कार्य के समान । अर्थात् वह उतरक्षण कार्य पूर्वक्षण निमित्तक नहीं है क्योंकि पूर्वक्षण के 1 पूर्वक्षणलक्षणं कारणं कार्यकालमप्राप्य वा कार्यं करोतीति द्विधा विकल्प्य क्रमेण दूषयन्नाह । 2 स्या० सौगताभ्युपगतं पूर्वक्षणस्वरूपं कारणमुत्तरक्षणरूपं कार्यं प्राप्नोति वा न वा । (दि० प्र० ) 3 पूर्वक्षणस्य । (ब्या० प्र०) 4 क्षण । ( दि० प्र०) 5 द्वितीयविकल्पः । 6 यथा घटलक्षणकार्य प्राप्नुवतः तन्तुगदंभादि लक्षणस्य कारणत्वं न दृश्यते । अन्यथा दृश्यते चेत्तदा सर्वस्य समानक्षणवर्तिनोऽविवक्षितस्य कारणस्य विवक्षितकार्यकारणत्वं प्रसजति तथा नास्ति लोके । (द० प्र०) 7 क्षणिकवस्तुन: । ( ब्या० प्र० ) 8 सव्येतर गोविषाणवत् । 9 कार्यकाल प्राप्नुवतः सर्वस्य । नियमेन कारणत्वे । 10 कार्येण सह । 11 विवक्षितकार्यम् । (दि० प्र०) 12 स्या० हे सौगत ! यस्य सत्वे कार्यस्य संभवः यस्यासत्त्वे कार्यस्यासंभवो घटते तदेव कारणमिति कल्पनायां क्रियमाणायां सत्यां तथापि कारणे सति अभवतः कार्यस्य स्वयमेव निश्चयेन पश्चात्संजायमानस्य पूर्वक्षणलक्षणकारणकार्यत्वं निषिद्धम् । कुतो यत्सौगताभ्युपगतं कारणं स्वयं विनश्य कार्यं जनयति तस्याकारणत्वघटनात् । यथाऽन्यकार्यजनकस्य कारणस्य कारणत्वं न घटते । अथवा कार्यस्य सौगताभ्युपगतकारणात् । अकार्यत्वसंभवात् तद्वत् । यथान्यकार्यस्य । ( दि० प्र०) 13 सौगतस्य । 14 कारणत्वेनाभिमते पूर्वक्षणे । 15 उत्तरक्षणलक्षणस्य कार्यस्य । 16 पूर्वक्षणरूपकारणमन्तरेण । 17 पूर्वक्षणकार्यत्वम् | 18 उत्तरक्षणलक्षणे कार्ये । 19 विवक्षितकारणस्य । (ब्या० प्र० ) 20 पूर्वक्षणमुत्तरक्षणस्य कारणं न भवति, तदभावेपि तस्योत्पादादित्यनुमानात् । 21 यसः । ( ब्या० प्र०) 22 ईप् । ( ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy