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________________ एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ] प्रथम परिच्छेद [ ६१ [ शून्यवादी ब्रूते असद्वस्तुन्येव पुण्यपापादि व्यवस्था घटते तस्य विचारः ] 'ननु च 'कस्यचित्कर्मणः पुण्यपापाख्यस्य कुतश्चिदनुष्ठानात्कायादिव्यापारलक्षणात्क्वचिदात्मनि' कदाचित्संसारिदशायां जन्म' मा भूत् सर्वथा 'सतस्तदघटनात्, "कर्मफलस्य वा शुभाशुभपरलोकलक्षणस्य' कर्म विशेषात्, तत्त्वज्ञानादेर्वा निश्श्रेयसस्य सर्वथा। सद्भावाविशेषात् । 14तस्या सतस्तु16 ततो17 18जन्मास्तु, प्रागसतः पश्चात्प्रादुर्भावदर्शनात्, इति चेन्न, 'उभयत्र तद्विरोधाविशेषात् । न हि सर्वात्मना सर्वस्य भूतावेव जन्म विरुद्ध [शून्यवादी कहता है कि असत्वस्तु में ही पुण्यपापादि व्यवस्था बनती है उस पर विचार योगाचार या माध्यमिक बौद्ध-कायादि व्यापारलक्षण किसी अनुष्ठान विशेष से किसी जीवआत्मा में कदाचित् संसारी अवस्था में किन्हीं पुण्य-पापादि क्रियाओं की उत्पत्ति मत होवे क्योंकि सर्वथा सत्-विद्यमान का जन्म असम्भव है। अथवा शुभ-अशुभरूप परलोकलक्षण, कर्मफल की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि कर्म विशेष हैं । अर्थात् कर्मादिकों को जैनियों ने द्रव्य रूप से नित्य स्वीकार किया है इसलिये सर्वथा नित्य में उत्पत्ति घटित नहीं हो सकती है। अथवा तत्त्वज्ञान, अनुष्ठान आदि एवं मोक्ष आदि का प्रादुर्भाव भी नहीं बन सकता है क्योंकि नित्य पदार्थों का सर्वदा ही सद्भाव पाया जाता है । अतएव नित्य एकान्त में उपर्युक्त तत्त्व, परलोकादि की व्यवस्था नहीं बन सकती है किन्तु हम बौद्धों के यहाँ तो उन पुण्य-पाप, परलोकादि की व्यवस्था बन जाती है क्योंकि वे असत् हैं तथा असत् पदार्थों का ही किन्हीं कारणों से प्रादुर्भाव हो सकता है क्योंकि जो पहले नहीं हैं उन्हीं की पुनः उत्पत्ति देखी जाती है। जैन-यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि सर्वथा सत् अथवा सर्वथा असत् दोनों ही पक्ष में उन परलोकादि का विरोध समान ही है। "क्योंकि सर्वात्मरूप से सभी का सत्व स्वीकार करने से ही उत्पत्ति का विरोध हो ऐसा नहीं है, अपितु सर्वथा बौद्धाभिमत अभाव (असत्) पक्ष में भी उत्पत्ति का विरोध है अन्यथा मिथ्या प्रतिभास को उपरति नहीं हो सकेगी।" 1 सौगतमतपूर्वपक्षीकरणमुखेन भाष्यं भावयन्ति ननु चेति । (दि० प्र०) 2 यौगाचारो माध्यमिको वा। 3 कायादिव्यापारो लक्षणं यस्य । 4 पूण्यपापाख्यस्य। 5 कर्मजन्मनोऽघटनात् । (दि० प्र०) 6 पुण्यपापलक्षण । (दि० प्र०) 7 जन्म मा भूदिति सम्बन्धः। 8 कर्मादिकं तु द्रव्यत्वेन जैनैनित्यमङ्गीक्रियते। 9 सर्वथा सतस्तदघटनात् । 10 आवरणविशेषात् । 11 आदिपदेनानुष्ठानादेः। 12 जन्म मा भुदित्येव सम्बन्धः । यतः सर्वथा सत्त्वेनाविशेषात् । 13 च । अधिकः पाठः । (दि० प्र०) 14 परलोकादेः । बौद्धमते सर्वथाऽभाव इष्टः । अत एवं (वक्ष्यमाणं) प्राह माध्यमिकः । 15 मोक्षस्यापि जन्म मा भूत कुत: सर्वथा सत्त्वेन विशेषाभावात् । (दि० प्र०) 16 कर्मणः पुण्यपापाख्यस्य कर्मफलस्य शुभाशुभपरलोकलक्षणस्य निःश्रेयसस्य च तच्छब्देन ग्रहणम् । तस्य कार्यस्य । (दि० प्र०) 17 कुतश्चित्कारणात् । 18 अनेन तु तच्छब्देनानुष्ठानस्य कर्मविशेषस्य तत्त्वज्ञानादेश्च पूर्वोक्तस्य ग्रहणम् । (दि० प्र०) 19 सर्वथा सदसतो: पक्षयोः । 20 परलोकादिजन्मविरोधाविशेषात। 21 वस्तुनः । (ब्या० प्र०) 22 सत्त्वे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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