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________________ एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ] प्रथम परिच्छेद [ ५६ वाद्यद्वैतवादिनोः परलोकादिव्यवस्था नास्ति ।। ननु च शून्यवादिभिरद्वैतावलम्बिभिश्च तस्यानिष्टत्वात्कथं सर्वेषामेकान्तवादिनां *तदिष्ट मिति चेन्न, तैरपि संवृत्त्या प्रायेणेष्टत्वात् । कथं पुनरनेकान्तप्रतिषेधेन 'तद्बाध्यते इति चेत् क्रमाक्रमयोः 'प्रतिषेधात्, "तयोरनेकान्तेन व्याप्तत्वात् तत्प्रतिषेधेन' 1 तत्प्रतिषेधसिद्धे:15 । क्रमाक्रमप्रतिषेधे 16चार्थक्रियाप्रतिषेधः, तस्यास्ताभ्यां व्याप्तत्वात् । अर्थक्रियाप्रतिषेधे च कर्मादिका विरुध्यते, तस्य तया व्याप्तत्वात् । यदि वानेकान्त पुण्यपापादि कर्म, उनके फल एवं परलोकादि बन ही नहीं सकते हैं। इसी बात का आचार्य आगे स्पष्टीकरण करते हैं [ शून्यवादी और अद्वैतवादी जनों के यहाँ परलोकादि व्यवस्था नहीं है । ] शंका-शून्यवादी एवं अद्वैतवादियों ने तो कुशलाकुशल कर्म, परलोक आदि को स्वीकार ही नहीं किया है पुनः आपने ऐसा कैसे कहा कि ये सब "कुशलाकुशलं कर्म" आदि सभी एकान्तवादियों को इष्ट हैं? अर्थात यदि शन्यवादी परलोकादि को स्वीकार कर लेवें तब तो उनके शन्यवाद का ही अभाव हो जावेगा तथैव अद्वैतवादी भी यदि परलोकादि को स्वीकार करेंगे तब तो उनके यहाँ द्वैत की आपत्ति आ जावेगी। अत: इन लोगों के लिये ये पुण्य-पापादि तत्त्व और परलोकादि व्यवस्था अनिष्ट ही है पुनः आप यह नहीं कह सकते हैं कि सभी एकान्तवादियों को ये तत्त्व मान्य हैं । ____समाधान-आपका यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि उन लोगों ने भी संवृति से माया अथवा मिथ्यारूप से प्रायः इन कुशलाकुशल एवं परलोकादि को मान ही लिया है। शंका-अनेकान्त के प्रतिषेध से वह बाधित कैसे होता है ? अर्थात् अनेकान्त को न मानने से पुण्य-पाप एवं परलोकादि बाधित कैसे हो जाते हैं ? समाधान-नित्य एकान्त अथवा अनित्य एकान्त आदि में क्रम और अक्रम का प्रतिषेध (विरोध) पाया जाता है क्योंकि ये क्रम और युगपत् अनेकान्त से ही व्याप्त हैं अत: उस अनेकान्त 1 तटस्थः। 2 तत्त्वोपप्लववादिभिः। 3 कर्मफलपरलोकादेरनिष्टत्वेनाङ्गीकारात् । यतः शून्यवादिनां परलोकाद्यङ्गीकारे शून्याभावः, अद्वैतवादिनां च परलोकाङ्गीकारे द्वैतापत्तिरतस्तेषामनिष्टत्वम् । 4 परलोकादिकम् । (दि० प्र०) 5 कल्पनया । स्या० एवं न। कस्मात्तरेकान्तवादिभिः कल्पनया कर्मतत्फलादेर्वादजल्पेनाङ्गीकृतत्वात् । (दि० प्र०) 6 मायया मिथ्यारूपेण वा। 7 कर्म कर्मफलम् । (दि० प्र०) 8 नित्यकान्तेऽनित्यकान्ते वा। 9 स्याद्वादिभिर्युक्त्याऽसंभवत्वप्रदर्शनात् । 10 क्रमाक्रमयोः । 11 व्यापकेन। 12 तस्य अनेकान्तस्य । 13 प्रतिषेधे इति पा० । (दि० प्र०) 14 तयोः क्रमाक्रमयोः। 15 व्यापकनिवृत्ती व्याप्यनिवृत्तेः सुसिद्धत्वात् । 16 कार्यकरणमर्थक्रिया। 17 क्रिया । (दि० प्र०) 18 कर्मादिकस्य । (दि० प्र०) 19 प्रकारान्तरेणाहुः स्याद्वादिनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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