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________________ ३६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ कथायां वा', अग्निरत्र धूमात्, वृक्षोयं शिशपात्वादित्यादिवचनानां शास्त्रे दर्शनात्', विरुद्धोयं हेतुरसिद्धोयमित्यादिप्रतिज्ञावचनानामनियतकथायां प्रयोगात् । परानुग्रहप्रवृत्तानां शास्त्रकाराणां प्रतिपाद्यावबोधनाधीनधियां शास्त्रादौ प्रतिज्ञाप्रयोगो युक्तिमानेव, उपयोगित्वा'त्तस्येति चेद्वादेपि सोस्तु, तत्रापि तेषां 'तादृशत्वात्, वादेपि विजिगीषुप्रतिपादनायाचार्याणां12 प्रवृत्तेः । नियतकथायां14 प्रतिज्ञाया न प्रयोगो युक्तः, तद्विषयस्यार्थाद्गम्यमानत्वान्निगमनादिवदिति चेत्ततएव शास्त्रादिष्वपि । न हि तत्र जिगीषवो न प्रतिपाद्याः। प्रतिज्ञादिविषयो वा सामर्थ्यान्न गम्यते । शास्त्रादावजिगीषूणामपि प्रतिपाद्यत्वात् प्रतिज्ञादेर ऐसा तो है नहीं। "अग्निरत्र धूमात्" "वृक्षोयं शिशपात्वात्" यहाँ अग्नि है क्योंकि धुआँ है, यह वृक्ष है, क्योंकि शिशपा है इत्यादि वचन शास्त्र में पाये जाते हैं और "यह हेतु विरुद्ध है, यह असिद्ध है" इत्यादि प्रतिज्ञा वचनों का अनियत कथा में प्रयोग पाया जाता है। बौद्ध-जो परानुग्रह में प्रवृत्त हैं एवं प्रतिपाद्य-शिष्य को समझाने में जिनकी बुद्धि तत्पर है ऐसे शास्त्रकारों का शास्त्रों में प्रतिज्ञा का प्रयोग करना युक्तिमान् ही है क्योंकि वह उपयोगी है। अर्थात् शिष्यों को ज्ञान करानेरूप कार्य को करने वाला है। जैन-यदि ऐसी बात है तो वादकाल में भी उस प्रतिज्ञा का प्रयोग किया जावे । वादकाल में भी आचार्य आदि शास्त्रकार परानुग्रह आदि में प्रवृत्त होते हैं। क्योंकि वाद में भी विजिगीषु-जीतने के इच्छुक जनों को प्रतिपादन करने के लिये ही आचार्यों की प्रवृत्ति होती है। बौद्ध-नियत कथा (जल्प-वितंडारूप) में प्रतिज्ञा का प्रयोग युक्त नहीं है क्योंकि उसका विषय अर्थापत्ति से जान लिया जाता है निगमन आदि के समान । जैन-पूनः उसी प्रकार से शास्त्रादि में भी प्रतिज्ञा का प्रयोग यक्त नहीं है क्योंकि शास्त्रादि में विजिगोषु शिष्य नहीं हैं ऐसा तो है नहीं अथवा प्रतिज्ञा आदि का विषय अर्थापत्ति से नहीं जाना जाता है ऐसा भी नहीं है। 1 वीतरागकथायाम् । (ब्या० प्र०) 2 अवादे। नियमरहितायां सर्वैः क्रियमाणायांगोष्टम् । (दि० प्र०) 3 सौगतः । (दि० प्र०) 4 शास्त्रे प्रतिज्ञाभिधीयते एवेत्यत्रायं हेतुः। 5 अनियतकथायां च प्रतिज्ञाभिधीयते इत्यत्रायं हेतुः। 6 पराधीन । (ब्या० प्र०) 7 शिष्यबोधलक्षणकार्यकारित्वात् । (दि० प्र०) 8 प्रतिज्ञाप्रयोगस्याह जैन: तहि वादेऽपि सः प्रतिज्ञा प्रयोगो भवतु । तत्रापि वादेपि तेषां वादिनां तादृशत्वात् । प्रतिवाद्यवबोधनाधीनत्वात् । (दि० प्र०) 9 परानुग्रहप्रवृत्तत्वात् । 10 तादृशत्वमेव दर्शयति । 11 वादे जिगीषुः। इति पा० (ब्या० प्र०, दि० प्र०) प्रतिवादी । (दि० प्र०) 12 प्रतिवादि प्रतिबोधार्थम् । (दि० प्र०) 13 परः प्राह जल्पवितण्डारूपायाम् । 14 वादे । (दि० प्र०) 15 प्रतिज्ञावचनम् । (ब्या० प्र०) 16 तस्याः प्रतिज्ञाया अर्थोभिप्रायवशाद्गम्यते निश्चीयते । यथा निगमनादिराद्गम्यते। (दि० प्र०) 17 जैनः । 18 अत्राह स्याद्वादी यत एवं तत एव शास्त्रादिष्वपि प्रतिज्ञाप्रयोगो माभूत्तत्र नियतकथायां वादे प्रतिवादिनः प्रतिपाद्यान् नहि कोर्थः प्रतिवादिन एव शिष्याः । (दि० प्र०) 19 प्रतिज्ञाप्रयोगो न युक्त इति ! 20 शास्त्रादौ। 21 न केवलं जिगीषूणाम् । (दि० प्र०) 22 सौगतः प्राह । 23 श्रोतृसभ्यादीनाम् । (दि० प्र०) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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