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________________ क्रम संख्या १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३ १३६ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ *y (e) विषय प्रागसत् का जन्म मानने में क्या बाधा है ? ऐसा बौद्ध का प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं । पृष्ठ संख्या जो वस्तु अर्थक्रियाकारी है वह विधि प्रतिषेध कल्पना से सप्तभंगी विधि सहित है इस प्रकार से जैनाचार्य समर्थन करते हैं। बौद्ध कहता है कि प्रथमभंग से जीवादि वस्तुओं का ज्ञान हो जाने पर शेष भंगों का कहना व्यर्थ है, इस पर आचार्य उत्तर देते हैं । प्रमेयत्व हेतु व्यभिचारी है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं । धर्मी के प्रत्येक धर्म में यदि स्वभावभेद न होवे तब तो वस्तु व्यवस्था ही नहीं बनेगी । यद्यपि पदार्थ में स्वतः स्वभावभेद नहीं है, फिर भी विजातीयभेद हो जावेगा ऐसा बौद्धों द्वारा कहने पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं । Jain Education International व्यावृत्ति की कल्पना से असत्, अकृतक आदि होते हैं इस बौद्ध की मान्यता पर विचार । एकानेक में सप्तभंगी को घटित करते हुए जैनाचार्य प्रथम भंग का सयुक्तिक स्पष्टीकरण करते हैं । जीवादि विशेष परस्पर में भिन्न स्वभाव वाले हैं, पुनः वे एक द्रव्य कैसे हो सकते हैं इस शंका का समाधान । आचार्य द्वितीय भंग का विशेष रीति से वर्णन करते हैं । जैनाचार्य तृतीय आदि शेष भंगों का स्पष्टीकरण करते हैं। स्याद्वाद के अर्थक्रियाकारित्व का सारांश । प्रशस्ति । परिशिष्ट । For Private & Personal Use Only ३६३ ३६७ २३१८ ४०२ ४०४ ४०७ ४०८ ४१२ ४१३ ४१५ ४१७ ४२० ४२२ ४२३ www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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