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________________ पृष्ठ नं० २३० ० २३२ २३२ २३४ २३४ २३५ २३७ २३६ एक प्रमाण को मानने वाले कौन-कौन हैं ? अनेक प्रमाण को मानने वाले कौन-कौन हैं ? अद्वैतवादियों का खण्डन अद्वैतवादियों का खंडन विज्ञानाद्वैतवाद का खण्डन "चित्राद्वैतवाद" "शून्याद्वैतवाद" "ब्रह्माद्वैतवाद" "शब्दाद्वैतवाद" प्रत्यक्षक प्रमाणवादी चार्वाक का खण्डन चार्वाक का खण्डन तर्क प्रमाण की आवश्यकता तर्क प्रमाण के न मानने से हानि वैनयिक मत में परस्पर विरोध परस्पर विरोध दोष का स्पष्टीकरण ज्ञान को निरंश मानने में दोष अन्य सिद्धांतों में स्वयं को स्वयं का ज्ञान संभव नहीं है चार्वाक आदि के मत में ज्ञान स्वसंविदित नहीं है अत: उनके यहाँ प्रमाण की व्यवस्था नहीं बनती है सर्वज्ञ का ज्ञान असाधारण है आवरणरहित ज्ञान वाले सर्वज्ञ के वचन आदि व्यापार असाधारण हैं साधारण नहीं है अहंत भगवान् ही सर्वज्ञ हैं अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है सर्वज्ञ भगवान् इन्द्रिय ज्ञान से सभी पदार्थों को जानते हैं या अतीन्द्रिय ज्ञान से ? सर्वज्ञ भगवान् के भावेन्द्रियों के समान द्रव्येन्द्रियों का विनाश क्यों नहीं हो जाता है ? मीमांसक द्वारा सर्वज्ञ का अभाव आपके सर्वज्ञ में अतीन्द्रिय ज्ञान कैसे है एवं सभी संसारी जीवों के वे प्रभु कैसे हैं ? २४० २४३ २४४ २२५ २४७ २४८ २४६ २५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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