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सूक्ष्मांतरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥५॥
सूक्ष्म वस्तु परमाणु आदि, अंतरित राम रावण आदिक । दूरवति हिमवन् सुमेरु ये, हैं प्रत्यक्ष किसी के नित ।। क्योंकि ये अनुमेय कहे हैं, जैसे अग्न्यादिक अनुमेय ।
इस अनुमान प्रमाण कथित, सर्वज्ञ व्यवस्था है स्वयमेव ॥५॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥६॥
वह रागादिक दोष रहित, सर्वार्थविज्ञ प्रभु तुम्हीं कहे। क्योंकि तुम्हारे वचन युक्ति, आगम से अविरोधी नित हैं । प्रत्यक्षादि प्रमाणों से तव, तत्त्व अबाधित है जग में।
अतः प्रभो ! यह शासन तेरा, नित अविरोधी जनगण में ।।६।। त्वन्मतामृतबाह्यानां, सर्वथैकांतवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां, स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥
प्रभु तव मत अमृत से बाहर, दुराग्रही एकांतमती। 'मैं हूं आप्त' सदा इस मद से, दग्ध हुये अज्ञानमती ।। उनका वह ऐकांतिक शासन, इष्ट उन्हें फिर भी बाधित ।।
प्रत्यक्षादि प्रमाणों से वह, तत्त्व सदा निंदित दूषित ।।७।। कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकांत-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर-वैरिषु ॥८॥
नाथ ! स्वपर वैरी एकांत-ग्रह पीड़ित जन के मत में । शुभ अरु अशुभ क्रिया परलोका-दिक फल भी नहिं बनते हैं ।। पुण्य पाप फल बंध-मोक्ष की नहीं व्यवस्था भी बनती।
क्योंकि सर्वथा नित्य-क्षणिक में, अर्थक्रिया ही नहिं घटती ॥८॥ भावकाते पदार्थनामभावानामपन्हवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥
सब पदार्थ एकांतरूप से, अस्तिरूप ही यदि जग में । तो अभाव का लोप हुआ फिर, चार दोष हैं प्रमुख बने । सब पदार्थ सबरूप, अनादि, अनिधन, निःस्वरूप होंगे। हे भगवन् ! तव मत के द्वेषी जन के यहां न कुछ होंगे ॥६॥
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