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________________ टीकाकर्ती पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का संक्षिप्त परिचय लेखिका-ब्र० कु० माधुरी शास्त्री अवध प्रान्त के टिकैतनगर ग्राम में सन् १९३४ शरद् पूर्णिमा की रात्रि में धरती पर एक चाँद अवतीर्ण हुआ। श्रेष्ठी धनकुमार जी के सुपुत्र श्री छोटेलाल जी की बगिया खिल उठी और श्रीमती मोहिनी देवी का प्रथम मातृत्व धन्य हो गया। कन्या के रूप में मानों कोई देवी ही वरदान बनकर आई थी। कन्या का नाम रखा गया-"मैना" वैसे कन्या का जन्म साधारणतया घर में कुछ समय के लिए क्षोभ उत्पन्न कर देता है किन्तु विश्व में अनादिकाल से पुरुषों के समान नारियों ने भी महान कार्य कर धरा को गौरवान्वित किया है । बल्कि यों भी कह सकते हैं कि सतीत्व के बल पर ही धर्म की परम्परा अक्षुण्ण बनी हुई है। संस्कारों का प्रभाव जीवन में बहुत महत्व रखता है। ११ वर्ष की उम्र में कुमारी मैना के जीवन पर अमिट छाप पड़ी-अकलंक निकलंक नाटक के एक दश्य की। विवाह की चर्चा के समय जो बात अकलंक ने अपने माता-पिता से कही थी कि "कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा नहीं रखना ही श्रेयस्कर है।" तदनुसार मैना ने भी उसी क्षण आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत रखने का मन में संकल्प कर लिया था। सन् १९५२ की शरद् पूर्णिमा के दिन बाराबंकी में मैना ने आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से सप्तम प्रतिमा रूप आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। बहतों ने रोका, समझाया, संघर्ष किया लेकिन स्वातन्त्र्य प्रिय कु० मैना को रोकने में सफलता नहीं मिली। वि० सं० २००६ चैत्र कृ०१ के दिन आचार्य श्री से ही श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त की। आपकी दृढ़ता देखकर गुरु ने नाम रखा-"वीरमती"। जिस समय चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की कुंथलगिरि में सल्लेखना हो रही थी उस समय आप भी क्षुल्लिका विशालमती माताजी के साथ कुंथलगिरि आई और आचार्य श्री की विधिवत् सल्लेखना का दृश्य साक्षात् दृष्टि से देखा । आचार्य श्री ने अपने प्रथम शिष्य मुनि श्री वीरसागर जी को आचार्य पट्ट प्रदान किया था। श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञानुसार "क्षु० वीरमती" ने आचार्य श्री वीरसागर जी के संघ में प्रवेश कर वि० सं० २०१३ वैशाख कृष्णा दूज को माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य श्री वीरसागर महाराज ने दीक्षोपरांत वीरमती का नाम परिवर्तन कर नामकरण कर दियाआयिका श्री ज्ञानमती माताजी। आर्यिका ज्ञानमती जी ने अपनी छोटी सी अवस्था में ही गुरु के आशीर्वाद से महान ज्ञानार्जन कर लिया । आचार्य श्री इन्हें हमेशा यही संबोधन दिया करते थे-माताजी! मैंने जो आपका नाम रखा है उसका ध्यान रखना । २ वर्ष पश्चात् गुरुदेव भी जयपुर खानिया में समाधिस्थ हो गये। आचार्य श्री की समाधि के पश्चात् लगभग ६ वर्ष तक आपने आ० शिवसागर महाराज के संघ में ही रहकर ध्यानाध्ययन किया । अनंतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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