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________________ ४२४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६भिलापसंसर्ग'रहितत्वात् । सन्निहितविषयं च, देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थागोचरत्वात् । 'तन्न साकल्येन व्याप्तिग्रहणसमर्थम् । न चानुमान मनवस्थानुषङ्गात् * । व्याप्तिग्राहिणोनुमानस्यापि व्याप्तिग्रहणपुरस्सरत्वात्तद्व्याप्तेरनुमानान्तरापेक्षत्वात् क्वचिदप्यवस्थानाभावात् । एवमप्रसिद्धव्याप्तिकं च कथमनुमानमेकान्तवादिनामनित्यत्वाद्येकान्तधर्मस्य साधकं येन प्रमाणसिद्धः सर्वथैकान्तोऽनेकान्त शासनस्य बाधक: स्यात् ? 'स्याद्वादिनां तु, परोक्षान्त विना नस्तकेंण' सम्बन्धो व्यवतिष्ठेत * । तस्य विचारकत्वात् ।। जैनमते तर्कज्ञानं प्रमाणं तत्तु व्यवसायात्मकमेव ] प्रत्यक्षानुपलम्भसहकारिणो मतिज्ञानविशेषपरोक्षतर्कज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषादुपजायमानस्य यावान्कश्चिद्धूमः स सर्वोप्यग्निजन्माऽनग्निजन्मा वा न भवतीति के संसर्ग से रहित है तथा वह प्रत्यक्ष सन्निहित विषयों को ही ग्रहण करने वाला है किन्तु देश, काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट (परोक्ष) पदार्थों को विषय नहीं करता है इसलिये निविकल्प अथवा सविकल्प दोनों ही प्रत्यक्ष संपूर्ण रूप से व्याप्ति को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं। न अनुमान ही व्याप्ति को ग्रहण करने में समर्थ है अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा*। व्याप्ति को ग्रहण करने वाला अनुमान भी व्याप्ति ग्रहणपूर्वक ही होता है तब वह पूर्व की व्याप्ति भी अनुमानान्तर की अपेक्षा रखेगी अतः कहीं पर भी अवस्थान नहीं हो सकेगा। इस प्रकार से एकांतवादियों के यहाँ अप्रसिद्ध व्याप्ति वाला अनुमान भी अनित्यत्व आदि एकांत धर्म का साधक कैसे होगा कि जिससे प्रमाण सिद्ध सर्वथा एकांत धर्म अनेकांतशासन को बाधित कर सके अर्थात् नहीं कर सकता है किन्तु इस कथन से यदि आप कहें कि जैनी भी किस प्रमाण से व्याप्ति को ग्रहण करते हैं तो हम स्याद्वादियों के यहाँ परोक्ष के अन्तर्गत एक तर्क नाम का प्रमाण है उससे व्याप्ति रूप सम्बन्ध को व्यवस्था बन जाती है क्योंकि वह तर्क ही विचारक—व्याप्ति का निश्चय कराने वाला है। [ जैनमत में तकं ज्ञान प्रमाण है और वह व्यवसायात्मक ही है ] प्रत्यक्ष और अनुपलंभ जिसमें सहकारी कारण हैं (अर्थात् जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ अग्नि 1 निर्विकल्पादुम्पन्नत्वात् सविकल्पज्ञानस्य । परमतेऽभिलापसंसर्गसहितं व्याप्तिग्राहि । (ब्या० प्र०) 2 निविकल्पकादुत्पन्नत्वात्सविकल्पकस्य (शब्दसंसर्गसहितं व्याप्तिग्राहीति हि परेषां मतम्) । विरोधान्नोभयेतिकारिकाव्याख्यानावसरे अभिलापसंसर्गरहितत्वं बलादापद्यतेस्येति वक्ष्यते। 3 अविचारकं सन्निहितविषयं च यतः। 4 निर्विकल्पक सविकल्पकं वा। 5 सर्वमनुमानं व्याप्तिग्राहकं साध्यसाधकत्वान्यथानुपपतेरित्युक्ते वक्ति । (ब्या० प्र०) 6 साकल्येन व्याप्तिग्राहकम् । 7 तर्हि स्याद्वादिनां कथं न्याप्तिग्रह इत्युक्ते आह। 8 अस्माकम् । 9 उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहस्तर्कः। 10 यत्र यत्र धुमस्तत्र तत्राग्निर्यथा मठ: । यत्र यत्राग्निर्नास्ति तत्र तत्र धमोपि नास्ति यथा महाह्रदः । इत्युक्तप्रकारौ प्रत्यक्षानुपलम्भौ सहकारिणौ यस्य तस्य । 11 मतिज्ञानविशेष, एवं परोक्षतर्कज्ञानं तदावरणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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