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________________ ४१८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६ मानात्तदवगतेरदोष इति चेन्न, अनवस्थाप्रसङ्गात्, तदनुमानस्यापि व्याप्तिप्रतिपत्तिपुरस्सरत्वात् तद्वयाप्तेरप्यनुमानान्तरापेक्षत्वात्, सुदूरमपि गत्वा प्रत्यक्षतस्तद्व्याप्तिप्रतिपत्तेरघटनात् । एतेन सन्तानान्तरे 'तव्याप्तेरवगतिरपास्ता, अनुमानात्तदवगतावनवस्थानाविशेषात्, प्रत्यक्षतस्तदवगतेरसंभवाच्च । इति नानुमेया सुषुप्त्यादाविच्छास्ति तत्काला पूर्वकाला वा, तदनुमानस्यानुदयात् । तथा च सर्वज्ञप्रवृत्तेरिच्छापूर्वकत्वे साध्ये वक्तृत्वादेर्हेतोः सुषुप्त्यादिना व्यभिचारात्तदनियम' एव । ततश्चैतन्यकरण'पाटवयोरेव "साधकतमत्वम् । [ वक्तुमिच्छापि सर्वज्ञवचने सहकारिणीति मान्यताया निराकरण ] ननु च सत्यपि चैतन्ये करणपाटवे च वचनप्रवृत्तेरदर्शनाद्विवक्षापि तत्सहकारिकार आप नैयायिक अबाधित बचन वाले हैं। इस प्रकार से स्वस्थ पुरुषों के द्वारा आप आदर कैसे प्राप्त कर सकेंगे? नैयायिक अनुमान से वचनादि प्रवृत्तियों की ऐसी व्याप्ति को मानने में दोष नहीं होगा। जैन-ऐसा नहीं कह सकते अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा। वह अनुमान भी व्याप्ति के ज्ञान पूर्वक होगा। वह व्याप्ति भी भिन्न अनुमान की अपेक्षा रखेगी। बहुत दूर भी जा करके प्रत्यक्ष से उस व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकेगा। इसी कथन से भिन्न सन्तान में भी उस साध्य-साधन की व्याप्ति का खण्डन कर दिया गया है क्योंकि अनुमान से उस व्याप्ति का निर्णय करने में अनवस्था समान ही है और प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ज्ञान असम्भव ही है। इस प्रकार से सोते हुये आदि मनुष्यों में तत्कालिक या पूर्वकालिक इच्छा है यह बात अनुमेय नहीं है । उसको सिद्ध करने के लिये किसी भी अनुमान का उदय नहीं है । इसीलिये सर्वज्ञ की प्रवृत्ति को इच्छा पूर्वक सिद्ध करने में वक्तृत्वादि हेतु सुषुप्त आदि पुरुष से व्यभिचरित पाये जाते हैं अतः इच्छा पूर्वक ही वचन होवें ऐसा नियम नहीं रहता है क्योंकि चैतन्य और इन्द्रियों को पता ही वचनादि प्रवृत्ति की साधक है। [ बोलने की इच्छा भी सर्वज्ञ वचन में सहकारी है इस मान्यता का निराकरण ] शंका-चैतन्य और इन्द्रियों की पटुता के होने पर भी वचन प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है किन्तु विवक्षा (कहने की इच्छा) भी सहकारी कारण रूप अपेक्षित रहती है। समाधान नहीं । भिन्न-भिन्न सहकारी कारण नियम से अपेक्षित नहीं हैं। नक्तंचर-उल्लू आदि अथवा अंजन आदि से संस्कृत चक्षु वाले प्रकाश की अपेक्षा न रखकर 1 अनवस्थां दर्शयति । 2 अनुमान । (ब्या० प्र०) 3 स्वसन्ताने व्याप्त्यभावसमर्थनेन । 4 साध्यसाधनव्याप्तेः । 5 इच्छाया अननुमेयत्वप्रकारेण । 6 नैयायिकोक्तस्य । 7 वक्तृत्वेच्छापूर्वकत्वयोः (स्वभावकार्यस्वरूपान्यतरनियमाभावः)। 8 चैतन्यं ज्ञानम् । 9 करणं ताल्बादिप्रयत्न इन्द्रियाणि वा। 10 योः साधक इति पा. । (ब्या० प्र०) 11 वाक्यप्रवृत्ति प्रति साधकतमत्वं, सुषुप्त्यादाविच्छापूर्वकत्वाभावेपि वक्तृत्वदर्शनात् । 12 परः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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