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________________ अहंत ही सर्वज्ञ हैं ] प्रथम परिच्छेद [ ४१३ रपि व्यभिचारदर्शनात् । प्रज्ञातिशयवतां तु सर्वत्र परीक्षाक्षमाणां यथा धूमादि पावकादिक न व्यभिचरति तथा व्यापारव्याहाराकारविशेषः क्वचिद्विज्ञाना'द्यतिशयमपीत्यनुकूलाचरणम् । एवं युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वं, भगवतोहत एव सर्वज्ञत्वं साधयतीत्यभिधाय । [ सर्वे सत्यहेतवोऽहं ति भगवति एव सर्वज्ञत्वं साधयति नान्येषु ] तदेवं तत् सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वमहत्येव सकलज्ञत्व साधयति नान्यत्रेत्यविरोध इत्यादिना स्पष्टयति'*, स्वामीति शेषः यद्यस्मादविरोधः सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वं त्वय्येव तस्माच्च त्वमेव स इत्यभिधानसंबन्धात् । स एवाविरोधः कुतः सिद्ध इत्यारेकायां यदिष्टं12 ते प्रसिद्धेन न बाध्यते इत्यभिधानात् । अत: आप बौद्ध हमारे अनुकूल ही आचरण करते हैं ।* मंदतर बुद्धि वाले पुरुष धमादि की परीक्षा में भी असमथ पाये जाते हैं अतः धूमादिक हेतु से धमध्वजादि-अग्नि आदि के ज्ञान में उन्हें व्यभिचार दोष दिखाई दे सकता है, किन्तु प्रज्ञातिशय वाले तो सर्वत्र परीक्षा में कुशल होते हैं अतः जैसे उनके धमादि हेतु पावक के ज्ञानादि में व्यभिचार को नहीं प्राप्त होते हैं । तथैव व्यापार, व्याहार, आकार विशेष किसी जीव में विज्ञानादि अतिशय को सिद्ध ही करते हैं इस प्रकार आपने हमारे अनकल ही कथन किया है। अतः युक्ति-शास्त्र से अविरोधी वचन भगवान् अहंत में हो सर्वज्ञत्व को सिद्ध करते हैं यह अभिप्राय हुआ। [ सभी हेतु अहंत भगवान् को ही सर्वज्ञ सिद्ध करते हैं अन्य बुद्ध आदि को नहीं ] इस प्रकार वे पूर्वोक्त सभी हेतु सुनिश्चितासंभवद् बाधक प्रमाण रूप होने से अहंत में हो सकलज्ञत्व को सिद्ध करते हैं अन्यत्र नहीं। ऐसा 'अविरोधी' इत्यादि पद से स्वामी समंतभद्राचार्य स्पष्ट करते हैं जिससे कि जो अविरोध रूप "सनिश्चितासंभवदबाधक प्रमाणत्व" है " है वह आप में हो है इसलिये आप ही वे आप्त हैं इस प्रकार से शब्दों का सम्बन्ध है। वे ही अविरो आप किस प्रमाण से सिद्ध हैं ऐसी आशंका होने पर जो आपका इष्ट (मत) है वह प्रसिद्ध प्रमाण से बाधित नहीं होता है इस प्रकार का अर्थ समझना । 1 न व्यभिचरतीति योज्यं । (ब्या० प्र०) 2 एतेन अर्हन्नेव सर्वज्ञ इति निश्चयाभावे बाधक इत्येतदपि निरस्तं । एवं पूर्वोक्तानां सर्वेषां तीर्थच्छेदसंप्रदायानां बाधकत्वाभावप्रतिपादनप्रकारेण नि:शेषदोषावरणहानिः कस्यचिन्निश्चेतं न शक्यते । अतः कथं संभाव्यत इति प्रत्यवस्थानस्य बाधकाभावप्रतिपादनप्रकारेण सामान्येन सर्वज्ञसिद्धावपि अहंन्नेव सर्वज्ञ इति कथं निश्चय इत्येवंविधप्रत्यवस्थानस्यापि बाधकत्वाभावप्रतिपादनप्रकारेण-दि. प्र.। 3 युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वाद्यनेकप्रकारेण । 4 पूर्वोक्तम् । 5 कपिलादी-दि. प्र.। 6 स त्वमेवेति कारिकोक्तेन । 7 तीर्थकृत समयानां चेति कारिकायां यदस्पष्टतया कथितं सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वं तदिदानी स्पष्टयति स्वामीत्यर्थः । दि. प्र.। 8 समन्तभद्राचार्यः। 9 निर्दोषः । (ब्या० प्र०) 10 कारिकायां । (ब्या० प्र.) 11 अत्राहाहन हे समंतभद्राचार्यः ! स: अविरोधः मयि कूत: प्रमाणात सिद्धः । (ब्या० प्र०) 12 कारिकास्थितयच्छब्दस्य पूर्वत्रापि संबंधोवगंतव्यः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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