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________________ सांख्यादि मान्य संसार मोक्ष खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ४०१ शेषकर्मफलोपभोगोपगमाददोष' इति चेत् कः पुनरसौ समाधिविशेषः ? स्थिरीभूतं ज्ञानमेव स इति चेत् तदुत्पत्तौ परनिःश्रेयसस्य भावे स एवाप्तस्योपदेशाभावः । सकलतत्त्वज्ञानस्यास्थैर्यावस्था'यामसमाधिरूपस्योपजनने युक्तोयं योगिनस्तत्त्वोपदेश इति चेन्न, सकलतत्त्वज्ञानस्यास्थैर्यविरोधात्तस्य' कदाचिच्चलनानुपपत्तेः, 10अक्रमत्वाद्विष यान्तरसंचरणाभावात्, अन्यथा12 सकलतत्त्वज्ञानत्वासंभवादस्मदादिज्ञानवत् । अथ13 तत्त्वोपदेशदशायां योगिनोपि ज्ञानं विनेयजनप्रतिबोधाय व्याप्रियमाणमस्थिरमसमाधिरूपं पश्चान्निवृत्तसकलव्यापारं स्थिरं समाधिव्यपदेशमास्कन्दतीत्युच्यते तहि समाधिश्चारित्रमिति नाममात्रं भिद्यते, नार्थ:16। और अन्य किस कारण से हो सकती है अर्थात् तपश्चर्या आदि ही औपक्रमिक निर्जरा में कारण है इसलिये तपश्चर्या के अतिशय विशेष से होने वाला तत्त्वज्ञान ही मोक्ष के लिये कारण है यह बात सिद्ध हो गई। सांख्य-उपात्त-उपाजित किये गये पूर्व के अशेष कर्मों के फल का उपभोग समाधि विशेष से हो जाता है ऐसा हमने माना है इसमें कोई दोष नहीं आता है। जैन-यह समाधि विशेष क्या है ?, सांख्य-स्थिरीभूत ज्ञान का ही नाम समाधि विशेष है। जैन-तब तो स्थिरीभूत ज्ञान के उत्पन्न होते ही मोक्ष हो जावेगा। पुनः आप्त के उपदेश का अभाव ही हो जावेगा। सांख्य-अस्थैर्य अवस्था में सकल पदार्थों का तत्त्वज्ञान असमाधि रूप है अत: योगी का तत्त्वोपदेश करना युक्त ही है । अर्थात् जब संपूर्ण तत्त्वज्ञान अस्थिर रहता है तब असमाधि रूप अवस्था है उस समय योगी उपदेश देते हैं। ___ जैन-सकल तत्त्वज्ञान में अस्थिर अवस्था का विरोध है अर्थात् पूर्णज्ञान में चलायमान अवस्था कदाचित् भी नहीं हो सकती है क्योंकि सकलज्ञान युगपत् संपूर्ण पदार्थों को जान लेता है अतः क्रम से पृथक्-पृथक् विषय में संचरण करने का अभाव है अन्यथा सकल तत्त्वों का ज्ञान होना असंभव हो जावेगा हम लोगों के ज्ञान के समान । 1 समाधिविशेषस्य स्थिरीभूतज्ञानत्वेन तत्त्वज्ञानतपोतिशयद्वयहेतुकस्वाभावाददोष इति भावः । दि. प्र.। 2 स्याद्वादी। 3 स्थिरीभूतजानोत्पत्ती सत्त्यां स परनिःश्रेयससंभवः तस्मिन् सति स एव पूर्वोक्तः आप्तस्योपदेशाभावः संभवति-दि. प्र.। 4 परनिःश्रेयसे शरीराभावादशरीरस्याप्तस्योपदेशकरणविरोधादाकाशवत् भाविशरीरस्येवोपात्तशरीरस्यापि निवृत्तिः परनिःश्रेयसमिति वचनात् । (ब्या० प्र०)5 सकलतत्त्वज्ञानस्य विषयांतरसंचरणाभावेनास्थर्याभावाद्यदैव परनिःश्रेयसप्राप्तिस्ततश्चोपदेशाभाव इति भावः-दि. प्र.। 6 सांख्यः। 7 चलावस्थायाम । 8 जैनः। 9 अस्थैर्यविरोध दर्शयति । 10 चलनानुपपत्तिः कुतः ? 11 अक्रमः कुतः ? 12 विषयान्तरसञ्चरणे सति। 13 सांख्यः । 14 स्वीकरोति । (ब्या० प्र०) 15 जैनः । 16 अर्थोऽभिप्रायस्तु न भिद्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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